SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 671, जनवरी-मार्च 2014 अर्थात् जिसमें सम्पूर्ण द्रव्य युगपत् अवकाश पाते हैं अथवा स्वयं आकाश भी जिसमें अवगाह पाता है, वह आकाश है। द्रव्यों की संख्या की विचारणा में यह पहले ही कहा जा चुका है कि दिशा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। आकाश के प्रदेशों की पंक्तियाँ सर्वतः वस्त्र में धागों की तरह श्रेणीबद्ध है। एक परमाणु के द्वारा घेरे गये आकाश को एक प्रदेश कहते हैं। इसलिए आकाश में अनन्त प्रदेश कहे गये हैं। यदि पूर्व आदि दिशाओं को पृथक् स्वतंत्र द्रव्य माना जायेगा तो प्रदेश, जनपद, नगर आदि अनेक स्वतंत्र द्रव्यों की कल्पना करना पड़ेगी। चार्वाक मतानुयायी आकाश को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर मूर्त द्रव्यों का अभाव स्वीकार करते है, जो उचित नहीं है। क्योंकि गुण एवं पर्याय वाला होना (गुणपर्ययवद् द्रव्यम्) या सत्ता वाला होना (सदद्रव्यलक्षणम्) द्रव्य का लक्षण आकाश में घटित होता है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने 'तथाकाशमतो नैषां गुणाभावस्वभावता' कहकर स्पष्ट किया है कि अन्य द्रव्यों के समान आकाश भी गुणों वाला है, अतः आकाश को अभावात्मक स्वभाव वाला नहीं माना जा सकता है। धर्म एवं अधर्म द्रव्य की तरह आकाश भी एक द्रव्य है। धर्म एवं अधर्म द्रव्यों की तरह आकाश भी परिस्पन्द रूप क्रिया से रहित निष्क्रिय द्रव्य है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के निष्क्रियाणि च' (५.७) पर वार्तिक लिखा है - 'निष्क्रियाणि च तानीति परिस्पन्दविमुक्तिः। सूत्रितं त्रिजगद्व्यापिरूपाणां स्पन्दहानितः।।५४ देश से देशान्तर होना रूप परिस्पन्द न होने से सूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने उन धर्म, अधर्म और आकाश को निष्क्रिय कहा है। क्योंकि ये तीनों जगत् में सर्वत्र व्यापक स्वरूप वाले हैं तथा इनमें हलन-चलन आदि नहीं हो सकता है। जब ये जगत् में सर्वत्र ठसे हुए हैं तो इनमें परिस्पन्द रूप क्रिया हो ही नहीं सकती है। आकाश की एक द्रव्यता एवं उसकी निरंशता का निरसन : जैन दर्शन धर्म एवं अधर्म द्रव्य के समान आकाश को भी एक द्रव्य मानता है। आकाश की एक द्रव्यता तो वैशेषिकों को भी मान्य है। उन्होंने 'तत्त्वं भावेन' एवं 'शब्दलिङ्गाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्च"५ इन दो सूत्रों से आकाश काएक द्रव्यपना सिद्ध किया है। वे आकाश को व्यापक तो मानते हैं,
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy