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________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जिदविसोत्तियं वसियं। सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरिसंतो।। चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलइ अणिहुदमणस्स।। कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खू।। - भगवती आराधना, १३४-१३५ ऐसी समाधि के साथ मरण समाधिमरण है। सर्वार्थसिद्धि में मरण के बारे में लिखा है कि अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इंन्द्रियों का, मन-वचन-काय रूप तीनों बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण हैस्वपरिणामोपात्तस्यायुष इंद्रियाणां बलानां च कारणवशात्संक्षयो मरणम्। - सर्वार्थसिद्धि, ७/२२ 'भगवती आराधना' की विजयोदया टीका में मरण संबन्ध में उल्लेख आता है कि मरण, विगम, विनाश व विपरिणाम- ये एकार्थवाचक हैं और मरण जीवनपूर्वक होता है अथवा प्राणों के परित्याग का नाम मरण है अथवा प्रस्तुत आयु से भिन्न आयु के उदय में आने पर पूर्व आयु का विनाश होना मरण है अथवा अनुभूयमान आयु नामक पुद्गल का आत्मा के साथ से विनष्ट होना मरण है - ‘मरण विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थः तच्च मरणं जीवितपूर्वम्। अथवा प्राणपरित्यागो मरणम्। अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा मरणम्।... अथवा अनुभूयमानायुसंज्ञकपुद्गलगलनं मरणम्॥ - भगवती आराधना, विजयोदया टीका, २५ इस प्रकार समाहित चित्त वाले निश्चल मन साधु का अनंतचतुष्टय रूप आत्म-स्वभाव में रमण करते हुए प्राणों के त्यागने की क्रिया का नाम 'समाधिमरण' है। पण्डित आशाधर जी ने 'सागारधर्मामृत' के आठवें अध्याय में सल्लेखना को समाधिमरण से भिन्न माना है, क्योंकि वे लिखते हैं कि - 'अथ सल्लेखनाविधिपूर्वकं समाधिमरणोद्योगविधिमाह उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतैः। संलिख्य गणमध्ये स्यात् समाधिमरणोद्यमी।।१५।।'
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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