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________________ अनेकान्त 6714, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 १६. संगोष्ठी विधि- पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन काल में आधुनिक काल की तरह संगोष्ठी (सेमिनार) का आयोजन होता था जिसमें नाना प्रकार की विद्याओं के सम्बन्ध में चर्चाएँ होती थी। विद्या संवाद गोष्ठी (आदिपुराण ७/६५) में सभी विद्याओं की चर्चा-वार्ता होती थी। दर्शन, काव्य, कथा, कामशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, व्याकरण, गणित, ज्योतिष, भूगोल, प्रभृति, विषयों की चर्चा की जाती थी। गोष्ठियों के पुरातन रूप का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि विद्या संवाद गोष्ठी में ग्यारह या पन्द्रह सदस्य भाग लेते थे। एक-एक विद्या का जानकार एक-एक विद्वान होता था। ये सभी विद्वान शास्त्रार्थ-शास्त्र चर्चा वीतराग कथा के रूप में करते थे।२७ निष्कर्ष : निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं१. प्राचीन भारत में ब्राह्मण और श्रमण शिक्षा पद्धतियों का समानान्तर रूप में विकास हुआ। २. जैन शिक्षा पद्धति में श्रमण या साधु शिक्षा के केन्द्र अवश्य थे, किन्तु आचार विषयक नियमों के कारण वे एक-स्थान पर स्थिर होकर नहीं रह सकते थे। ३. ब्राह्मण शिक्षा पद्धति में शिक्षा प्रवृत्तियमूलक थी, जबकि श्रमण शिक्षा निवृत्तिमूलक। ४. जैन शिक्षा मूलतः मोक्षमूलक थी, किन्तु उसका उद्देश्य, सम्यग्दर्शन, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र द्वारा व्यक्तित्व का समग्र विकास करना था। ५. जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षा विधि की अपनी विशेषताएँ थी। ६. जैन शिक्षा बहुआयामी थी।ज्ञान विज्ञान का कोई जैन आचार्यों ने अछूता नहीं छोड़ा। ७. जैन शिक्षा पद्धति में शिक्षा के माध्यम के विषय में किसी भाषा विशेष पर आग्रह नहीं देखा जाता। विश्व के पहले शिक्षाशास्त्री जैनाचार्य हैं। जिन्होंने सर्वप्रथम शिक्षा का माध्यम मातृभाषा एवं लोकभाषाओं को बनाने में विशेष योगदान दिया। कारण है कि उस समय की लोकभाषाओं को बनाने में विशेष बल दिया। यही कारण है कि उस समय भी लोकभाषाओंअर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश आदि में उन्होंने यथेष्ट साहित्य का सृजन भी किया। जिसके आधार पर अधिकारपूर्ण कहा जा सकता है कि
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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