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________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 अधिवास्य स्वचितस्थां श्रुतदेवी सपर्यया।। विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम्। उपादिशल्लिपिं संख्यास्थानं चांकेरनुक्रमात्।।८ इस विधि में मूलतः तीन शिक्षा तत्त्व परिगणित है - १. उच्चारण की स्पष्टता, २. लेखनकला का अभ्यास और ३. तर्कात्मक संख्या प्रणाली। ८. श्रवण विधि - जिनभद्र गणी ने अपने विशेषावश्यकभाष्य ग्रन्थ में श्रवण विधि में कई तरह से श्रवण के तरीकों का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम गुरु के मुख से चुप होकर सुने। दूसरी बार उसे हाँ करके स्वीकार करें। तीसरी बार ‘बहुत अच्छा' कहकर अनुमोदन करें। चौथी बार उस विषय की मीमांसा करें। पांचवीं बार उक्त प्रसंग को पूरी तरह पारायण कर लें और छठी बार गुरु के समान स्वयं उस विषय को अभिव्यक्त करें। शिक्षा के किसी भी विषय-विशेष में पारंगत होने का यह क्रम है। इससे विवक्षित विषय का पूरा व्याख्यान करने को शिष्य पूरी तरह समर्थ हो जाता है। ९. पद विधि - ‘पद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति पदम्' - जिसके द्वारा (अर्थ) जाना जाता है, वह पद है। जिसका जिसमें अवस्थान है वह पद अर्थात् स्थान कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं - १. नामिक २. नैपातिक ३. औपसर्गिक ४. आख्यानिक और ५. मिश्र। १०. पदार्थ विधि - द्रव्य और भावपूर्ण पदों की आर्थिक व्याख्या प्रस्तुत करना इस विधि का लक्ष्य है। वैदिक परम्परा में वेद के अध्ययन के हेतु स्वर पाठविधि का जिस प्रकार प्रचलन था उसी प्रकार पदार्थविधि द्वारा आगमों के अध्ययन के लिए इस विधि का उपयोग किया जाता था। ११. प्ररूपणा विधि - वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्य-प्रतिपादक एवं विषय-विषयी भाव की दृष्टि से शब्दों का आख्यान करना प्ररूपणा विधि है। प्ररूपणा विधि के आठ भेद हैं२ - १. सत् २. संख्या ३. क्षेत्र ४. स्पर्शन ५. काल ६. अन्तर ७. भाव ८. अल्प बहुत्व। १२ उपक्रम विधि२३- जिसके द्वारा श्रोता प्राभृत (शास्त्र) को उपक्रम्यते अर्थात् समीप करता है उसे उपक्रम कहते हैं। जिन मनुष्यों ने किसी शास्त्र के नाम, आनुपूर्वी, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाकार नहीं जाने हैं वे उस शास्त्र के पठन-पाठन आदि क्रियाफल के लिए
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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