SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 सत्ता रूप से कल्पित कर लिया गया है। नित्य स्थूल आदि कोई भी पदार्थ नही है। वस्तुतः क्षणिक असाधारण, सक्ष्म ऐसे उत्पाद, व्यय स्वभावों वाले स्वलक्षण ही सत् का स्वरूप हो सकता है। बौद्धों के इस एकान्त का व्यवच्छेद करने के लिए जैनाचार्यों ने द्रव्य के लक्षण में ध्रौव्य शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। पुनः बौद्ध प्रतिप्रश्न करते हैं कि उत्पादि त्रय किस प्रकार दूसरे उत्पादि के विना सत् स्वरूप हैं, उसी प्रकार सत् वस्तु को भी उत्पादि के विना सत् स्वरूप मान लेना चाहिए। यदि ऐसा मानते हैं कि उत्पाद, विनाश आदि का अन्य उत्पाद आदि से योग हो जाने पर सत् है, तब इसमें अनवस्था दोष आयेगा क्योंकि फिर दूसरे का तीसरे और तीसरे से चौथे इस प्रकार आगे भी उनका सत्पना सिद्ध करने के लिए क्रम नहीं टूटेगा। आचार्य विद्यानंद ने लिखा है कि उपर्युक्त मत प्रज्ञाकर (बौद्ध विज्ञान) का है जो अप्रज्ञा का द्योतक है एवं निराधार है। क्योंकि सत् स्वरूप वस्तु के साथ उन उत्पाद आदि धर्मों के सर्वथा भेद की असिद्धि है। तात्पर्य यह कि उत्पाद आदि, सत् से सर्वथा भिन्न नहीं है। इसलिए उत्पाद आदि को सिद्ध करने के लिए अन्य उत्पाद आदि की आवश्यकता नहीं होने से अनवस्था दोष नहीं आता। दूसरे उत्पाद आदि का सत् के साथ सर्वथा अभेद भी जैनसिद्धान्त में अभीष्ट नहीं है। इसलिए सत् और उत्पाद आदि में लक्ष्य लक्षण भाव बन जाता है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों की एकता से युक्त द्रव्य है। यहाँ ‘युक्त' शब्द को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है कि 'युज' धातु समाधानार्थक तादात्म्य अर्थ का व्याख्यान करती है, जो सत में स्थापित है, जिससे उत्पादिक का सत् से भेद का कथन नहीं होता। इससे सर्वथा भेद पक्ष में होने वाला अनवस्था दोष नहीं आता। सर्वथा अभेद भी नहीं है, जिससे लक्ष्य लक्षण का विरोध भी नहीं बनता।१२ सत् नित्यानित्य : सत् न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है, पर वह है कैसा इसका समाधान ‘तद्भावाव्ययं नित्यं"३ तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र में किया गया है। विवक्षित पदार्थ का जो भाव है, वह तद्भाव है, जो ‘यह वही है' ऐसे प्रत्यभिज्ञान प्रमाण द्वारा समझा जा सकता है। इससे कदाचित् भी विनाश हो जाने का अभाव है। इस दृष्टि से तद्भाव से विनाश नहीं होने को नित्य माना गया है। ‘एकसम्बन्धिज्ञानमपरसम्बन्धिस्मारकम्' के अनुसार तद्भाव से
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy