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________________ 17 अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 उत्पाद नहीं होना भी नित्य में गर्भित है। यह स्वतः सिद्ध है कि व्यय की निवृत्ति होते ही उसी समय उत्पाद की निवृत्ति सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि उत्तर आकार के उत्पाद की पूर्व आकार के विनाश के साथ व्याप्ति है।१४ अन्यत्व अतद्भाव है 'पूर्व परिणाम से यह परिणाम अन्य है' इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान स्वरूप अन्वय प्रत्यय से, अतद्भव को समझा जा सकता है। उत्पाद और व्यय का योग होने से अतद्भाव का प्रयोजक अध्रौव्य-अनित्य है। जैसा कि आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है - नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत्प्रतीतिसिद्धेः। नतद्विरुद्धं बहिरंन्तरंगनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते।।५ जो पहले था वह ही यह है, ऐसी प्रतीति होने से अर्थ नित्य है। बहिरंग औष अन्तरंग रूप में निमित्त नैमित्तिक परिणतियों के योग से नित्य और अनित्य रूप धर्म एक पदार्थ में विरुद्ध नहीं है। सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य मानने पर क्रम से और युगपत् अर्थक्रिया नहीं बन सकती। अर्थक्रिया से रहित वस्तु खरविषाण के समान निरर्थक है। यहाँ आचार्य विद्यानंद ने नित्यत्व और अनित्यत्व किसी कारण से विरुद्ध नहीं हैं, इसके समाधान में सूत्रकार के 'अर्पितानर्पितसिद्धेः१७ सूत्र का अवतरण करते हुए लिखा है कि अर्पितानर्पित सिद्धेः' को हेतु तथा तद्भाव-अव्यय होना नित्य, अतद्भाव-व्यय सहित होना अनित्य को साध्य बना लिया जाये तब अनेकान्तात्मक वस्तु में अर्पित-प्रधानता (एक धर्म की विवक्षा) तथा अनर्पित-अप्रधानता (प्रयोजन न होने पर अविवक्षा) से नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध धर्म विरोध रहित होकर एक वस्तु में सिद्ध हो जाते हैं। इसको न्यायवाक्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि एक वस्तु में इतर अनित्य के साथ विद्यमान नित्य सवरूप धर्म विरुद्ध नहीं होता, यह प्रतिज्ञा वाक्य है। उसमें अर्पित और अनर्पित सिद्ध हो जाने से, हेतु है, नय के भेदों के समान, यह अन्वय दृष्टान्त है। सत् नित्यरूप और अनित्यरूप अर्पित-प्रधानता से तथा अनर्पित-अप्रधानता से क्यों विवक्षित हो जाते हैं, इसका समाधान इस प्रकार दिया गया है कि द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य स्वरूप अर्पित है और पर्यायार्थिक नय से अविवक्षित होकर अनर्पित है। इसके विपरीत द्रव्यार्थिक नय से अनर्पित और पर्यायार्थिक नय से अर्पित वस्तु का अनित्य स्वरूप सिद्ध होता है।८
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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