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________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 व अचेतन द्रव्य के) परिणामान्तरों की प्राप्ति हो जाना उत्पाद है और स्वजाति का त्याग किये बिना पूर्ववर्ती भावों का विनाश हो जाना व्यय है। 'ध्रुव गतिस्थैर्ययोः' इस तुदादि गण व 'ध्रुव स्थैर्य' इस भ्वादि गण की स्थिर क्रिया के अर्थ वाली 'ध्रुवति' धातु से अच् प्रतयय करने पर 'ध्रुव' शब्द निष्पन्न होता है। इस 'ध्रुव' का कर्म व भाव ध्रौव्य है। तद्धित मं 'ष्यञ्' प्रत्यय करने पर भी 'ध्रौव्य' शब्द बन जाता है। इस तरह सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। सत् के इस लक्षण से सर्वथा एकान्तवादियों का पक्ष ध्वस्त हो जाता है और यह सिद्ध होता है कि वस्तु भेदाभेदात्मक है। यह कहना भी असंगत है कि ध्रौव्य युक्त सत् को द्रव्य का लक्षण तथा उत्पादव्ययात्मक सत् को पर्याय का लक्षण स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि जैनसिद्धान्त के अनुसार सत्-सत्ता एक ही है और सत् द्रव्य अनन्तपर्यायों वाला है। द्रव्य सत्ता और पर्याय सत्ता के रूप में दो प्रकार की सत्ताएं नहीं हैं अन्यथा इनसे परे एक महासामान्य द्रव्य को स्वीकार करना पड़ेगा। असत् पदार्थो के अस्तित्व से सत् स्वीकार करना (वैशेषिक) महासामान्य सत्व भी खरविषाणकी तरह द्रव्य नहीं कहलायेगा। महासामान्य को सत् स्वरूप स्वीकार करने पर सत् के रूप में द्रव्य सिद्ध हो ही जाता है और यह भी सिद्ध होता है कि द्रव्य असत् रूप नहीं है। क्योंकि मृद आदि द्रव्य-उपादान हो रही पर्यायें ही घट आदि कार्यों का प्रागभाव है तथा उपादेय की उत्पत्ति ही उपादान का ध्वंस है। स्वभावान्तरों से स्वभाव की व्यावृत्ति हो जाने का परिणाम अन्योन्यभाव है। त्रैकालिक भेद को बनाये रखने वाली परिणतियाँ अत्यन्ताभाव है। तात्पर्य यह कि अभाव, भावस्वरूप ही है। न्यायवैशेषिक, ब्रह्माद्वैतवादी जो सत्ता को केवल नित्य मानते हैं, उनके मत में विशेष भेद करने वाले लिंगों का अभाव है। उनके यहाँ नित्य और अनेक में समवायी सत्ता को स्वीकार किया गया है। जैन दृष्टिकोण से एकान्त मन्तव्यों का व्यवच्छेदक सत्, उत्पाद, व्यय और ६ प्रौव्यात्मक माना गया है, जो अनन्तात्मक पर्यायों के साथ तदात्मक हो रहा है। पर्यायें भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक हैं। बौद्धों के अनुसार सत् नित्य और एक नहीं है। सत् सत् ऐसी अन्वयात्मक शुद्ध सत् आकार वाली भी सत्ता नहीं है क्योंकि सत्व कोई वस्तुभूत सत्ता नहीं है, असत्पने की आवृत्ति करके उस सत् को कल्पित कर लिया गया है। इसी तरह सत् भी असत् का निषेध रूप होकर सत्ता रूप होकर
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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