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________________ अनेकान्त 6714, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 आचार्यवर्य श्री गुणभद्रस्वामी द्वारा विरचित ग्रन्थ आत्मानुशासन का अभिधान ही ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य आत्मा को बतलाता है। उनका 'आत्मानुशासनमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् कथन ग्रन्थ में अत्यन्त अल्प उल्लिखित होने पर भी आत्मस्वरूपमीमांसा की प्रधानता को अभिव्यक्त करता है। अग्रिम श्लोक में आत्मन् सम्बोधन भी यह स्पष्ट करने में समर्थ है कि ग्रन्थ का प्रणयन आत्मा की सम्बुद्धि के लिए हुआ है। यथा - 'दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन्! दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव॥ श्रीगुणभद्राचार्य ने सब द्रव्यों का एक सामान्य लक्षण बतलाने के पश्चात् आत्मा के असाधारण लक्षण का कथन करते हुए लिखा है "ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावाप्तिरच्युतिः। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम्॥ अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वभावी है और स्वभाव की प्राप्ति अविनाशी होती है। इसलिए अविनाशी अवस्था को चाहने वाले विवेकी को ज्ञान की भावना भानी चाहिए। यह असंदिग्ध तथ्य है कि चार्वाकेतर सभी दार्शनिक मोक्ष को ही दर्शन का परम प्रयोज्य मानते हैं। श्री त्रैविध सोमदेवाचार्य ने स्पष्टतया प्रतिपादित किया है 'गवामनेकवर्णानामेकवर्ण यथा पयः। षण्णां वै दर्शनानाञ्च मोक्षमार्गस्तथा पुनः॥७ अर्थात् जिस प्रकार अनेक वर्णों वाली गायों का दूध एक ही वर्ण वाला होता है, उसी प्रकार छहों दर्शनों का प्रयोज्य मोक्षमार्ग है। मोक्ष आत्मा के कल्याण एवं दुःखों से छुटकारे की अवस्था है। इसलिए सभी दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप की मीमांसा की है। किन्तु उनकी विवेचना में आत्मा का स्वरूप पृथक-पृथक् है। आत्मानुशासनकार ने आत्मा के स्वरूप को प्रदर्शित करने के लिए जो एक श्लोक दिया है, उसमें अन्य दार्शनिकों के मतों के खण्डन का भी संकेत है। यथा - 'अजातोऽनश्वरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः। देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः॥८
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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