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________________ अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 संपादकीय - आलेख आत्मानुशासन में आत्मस्वरूपमीमांसा 5 डॉ. जयकुमार जैन आत्मन् (आत्मा) शब्द आड्. उपसर्ग पूर्वक अत् धातु से मनिन् या अत् धातु से मनिण् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसके प्रमुखतया आत्मा, जीव, स्व एवं परमात्मा आदि अनेक अर्थ हैं। ये सभी एकार्थक भी हैं और क्वचित् भिन्नार्थक भी । द्रव्यसंग्रह की टीका में कहा गया है कि 'अत' धातु सतत गमन करने रूप अर्थ में प्रयुक्त होती है। सभी गत्यर्थक धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं। अतः यहाँ पर गमन शब्द से ज्ञान कहा जाता है। फलतः जो यथासंभव ज्ञानादि गुणों में वर्तन करता है, वह आत्मा है। अथवा शुभ-अशुभ मन, वचन, काय की क्रिया के द्वारा यथासंभव तीव्र-मन्द आदि रूप से जो पूर्णतया वर्तन करता है, वह आत्मा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्ण रूप से वर्तन करता है, वह आत्मा है।' अतः कहा जा सकता है कि सब असंख्यात प्रदेशों के साथ जिसमें ज्ञान सतत प्रवाहित है, वह आत्मा है और जिसमें ज्ञान नहीं है वह आत्मा नही है। आत्मा का निरुक्त्यर्थ स्पष्ट करते हुए श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा है 'भूवेष्वतति सातत्यादेतीत्यामा निरुच्यते । सोऽन्तरात्माष्टकर्मान्तर्वर्तितादभिलप्यते ॥ स स्याज्ज्ञानगुणोपेतो ज्ञानी च तत एव सः । २ अर्थात् यह जीव नर-नारकादि पर्यायों में निरन्तर गमन करता रहता है, इसलिए आत्मा कहलाता है और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा भी कहलाता है। यह जीव ज्ञान गुण से सहित है इसलिए ज्ञानी कहलाता है और ज्ञ भी कहा जाता है। आचार्य जिनसेन ने जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी- इन सबको पर्यायवाची माना है।
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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