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________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 29 में केवल इतना ही कहा है कि प्रमाद के अभाव से होने वाला वह अप्रमत्तगुणस्थान भूमिक है अप्रमत्तस्थान तक होता है यहाँ इस बात का निर्देश नहीं है कि वह प्रथम से सातवें स्थान तक होता है या केवल सातवें गुणस्थान में (a उक्त सभी ध्यान विषयक शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से अप्रमत्त मुनि को ही धर्मध्यान का स्वामी माना है और गौण रूप से प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि को स्वामी माना है। चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक के जो धर्मध्यान के ध्याताओं का उल्लेख सर्वार्थसिद्धिकार" पूज्यपाद स्वामी और तत्त्वार्थवार्तिककार भट्टाकलंक देव ने किया है वह मुख्यतः अज्ञाविचय और अपायविचय धर्मध्यान की विवक्षा से है । इस विषय में यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्मध्यान मुख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का है, उसमें मुख्य धर्मध्यान अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि के ही होता है और अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत के औपचारिक धर्मध्यान होता है। वर्तमान में इसी से कल्याण पथ प्रशस्त हो सकता है। इस प्रकार धर्मध्यान का विशद विवेचन ज्ञानवृद्धि का प्रमुख कारण है। यह धर्मध्यान आत्मा के विकास अवस्था का द्योतक है। इसके माध्यम से कषाय का पूर्ण नाश नहीं होता है। सकषाय जीवों को तरतमता से विशुद्धि का कारण है। परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करता है। संदर्भ : १. साक्षात्कर्तुयतः क्षिप्रं विश्वतत्वं यथास्थितम् । विशुद्धि चात्मनः शाश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरी भवेत् । ज्ञाना. ३० / ३ २. सवार्थसिद्धि : ९/२८ व ९ / ३६ का विशेषार्थ ३. भगवती आराधना विजयोदया टीका सहित गाथा १७०४ ४. मूलाचार, महापुराण २१/३३ भावपाहुड टीका ६८/२२६/१७ ५. तत्त्वानुशासननम् - ५१ ६. ज्ञानार्णव ३९/१ ७. ज्ञानार्णव ३९/२ ८. अलौल्यमारोग्यम निश्ठुरत्व गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् ॥ कान्तिः प्रसादः स्वर सौम्यता च योग प्रवृत्तः प्रथम हि चिहम् ।।३८/१३/१ ज्ञानार्णव में उद्धृत ९. ज्ञानार्णव, आदिपुराण २१ / १३४, धवल पु. १३, पृष्ठ ७०
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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