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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
श्री पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुहृदिसदामम संविदध्यात।। यच्छक्तितः प्रकृतिमूढमतिर्जनोपि वादीभसिंह मुनिपुंगवतामुपैति।।(२) ओडयदेव :
अजितसेन को वादीभसिंह यह उपाधि अपनी तार्किक प्रतिभा के कारण ही प्राप्त हुई होगी उनकी तार्किक प्रतिभा उनके द्वारा रचित और माणिकचंद ग्रन्थमाला (बम्बई से प्रकाशित) स्याद्वाद से स्पष्ट होती है।
आचार्यसोमदेव ने भी लिखा है कि यद्यपि वादीभसिंह भी न्यायशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे और उसी रूप में उनकी प्रसिद्धि थी, फिर भी गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि नामक गद्य और पद्यकाव्य उनकी दिव्य लेखनी से प्रसूत हुए हैं। इसमें आश्चर्य की क्या बात है।
वादीभसिंह का स्मरण जिनसेनाचार्य (ई.८३८) ने अपने आदिपुराण में किया है और इन्हें उत्कृष्ट कोटि का कवि वाग्मि और गमक बतलाया हैं। यथा- कवित्वस्य परासीमा वाग्मितस्य परंपदम्
गमकत्वस्य पर्यन्तोवादिसिहोऽच्यर्यते न कैः (४) पार्श्वनाथचरित्र के कर्ता वादिराजसूरि (ई.१०२५) ने भी वादीभसिंह का उल्लेख किया है और उन्हें स्याद्वाद की गर्जना करने वाला बतलाया गया है तथा दिड.नाग और धर्मकीर्ति के अभिमान को चूर-चूर करने वाला बतलाया गया है।
स्याद्वाद गिरिमाश्रित्य वादिसिहोंस्य गर्जिते
दिग्नागस्य मद्ध्वंसे कीर्तिभंगो न दुघटः इन उल्लेखों से वादीभसिंह एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान ज्ञात होते हैं उनकी स्याद्वाद सिद्धि उनके दार्शनिक होने की पुष्टि कराती है। पर आदिपुराणकार ने उन्हें कवि और वाग्मि भी बतलाया है।
मल्लिषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को अकलंक का सधर्मा गुरूभाई लिखा है और इसी में वादीभसिंह उपाधि से युक्त एक आचार्य अजिसेन का भी उल्लेख किया है।
गद्यचिंतामणि के अन्तिम दो पद्यों से स्पष्ट है कि उनका नाम ओडयदेव था और वे वादीरूपी हाथियों को जीतने के लिए सिंह के समान थे। उनके द्वारा रचा गया गद्यचिन्तामणि ग्रन्थ सभा का भूषण स्वरूप था। ओडयदेव वादीभसिंह पद के धारी थे।