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________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 अन्य के द्वारा असाध्य मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है। ज्ञानार्णवकार ने इस ध्यान की पांच धारणाओं का निरुपण किया है। जो इस प्रकार है - १. पार्थिवी धारणा, २. आग्नेयीधारणा, ३. श्वसना या वायवी धारणा, ४. वारुणी धारणा, ५. तत्त्वरूपवती धारणा। योगशास्त्र में भी इन्हीं पांच धारणाओं का वर्णन किया गया है। तत्त्वानुशासन में इन पांचों में से तीन धारणाएं मिलती हैं वहां श्वसना, आग्नेयी और वारुणी के पर्याय रूप में क्रमशः मारुती, तेजस्वी और अप्यानाम हैं। पार्थिवी धारणा - पद्मासन या सुखासन में बैठकर साधक मेरुदण्ड को सीधा करके नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर ध्यान करता है कि मध्यलोक के बराबर निःशब्द, कल्लोल रहित तथा बर्फ के समान सफेद समुद्र है, उसमें जम्बद्वीप के बराबर एक लाख योजन वाला तथा हजार पांखुडी वाला कमल है, जो सोने के समान पीला है और उसके मध्य केसर है जो बहुत अधिक सुशोभित है। उन केसरों में स्फुरायमान करने वाली देदीप्यमान प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका पर चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का एक ऊँचा सिंहासन है और सिंहासन पर मेरी आत्मा विराजमान है। साथ ही साथ यही भी विचार करे कि मेरा आत्मा रागद्वेष से रहित है और समस्त कर्मो का क्षय करने में समर्थ है। इन चीजों को ध्यान में लाने के बाद सूक्ष्म वस्तु में ध्यान केन्द्रित करने से समस्त चिन्ताओं पर रोक लग जाती है। इस पार्थिवी धारणा के बाद साधक आग्नेयी धारणा की साधना करता है। आग्नेयी धारणा - इस धारणा में साधक को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि मेरे नाभिकमल में सोलह पांखुड़ियों से सुशोभित एक मनोहर कमल है। उस कमल की सोलह पंखुडियों में क्रमशः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, ल, ए, ऐ, ओ, औ, अं. अः ये सोलह बीजाक्षर हैं तथा उस कमल की कर्णिका पर “ई” महामंत्र स्थापित है। इस महामंत्र रूप "ह" के रेफ से धीरे धीरे धुएं की रेखा निकल रही है। पश्चात् अग्नि के स्फुलिंग निकल रहे हैं। ये पंक्तिबद्ध चिन्गारियाँ क्रमशः शनैः शनैः अग्नि ज्वाला के रूप में परिणमित
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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