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________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 नहीं लग सकता है, इसलिए स्थूल एवं इन्द्रियगोचर पदार्थों से सूक्ष्म इन्द्रिय के अगोचर पदार्थों का चिन्तवन करना आवश्यक माना है। आलम्बन का पर्याय ध्येय माना जाता है। इसी ध्येय को चार भेदों वाला कहा है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत। आचार्य शुभचन्द्र ने इन चार भेदों का ही वर्णन किया है। पिण्डस्थ ध्यान - "पिण्डस्थ स्वात्मचित्विंतनम्' अर्थात् आत्म स्वरूप का निजात्मा का चिन्तन करना ही पिण्डस्थ ध्यान है। “पिण्ड” अर्थात् शरीर और उस शरीर में रहने वाली आत्मा है। अतः पिण्ड सहित या शरीर सहित आत्मा का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है। आचार्य देवसेन अपने शरीर में स्थित अच्छे गुण वाले आत्म प्रदेशों के समूह के चिंतन करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा है लेकिन ज्ञानसार में अपने नाभि के मध्य स्थित अरिहन्त के स्वरूप का विचार करने को पिण्डस्थ ध्यान कहा गया है। आचार्य शुभचन्द्र ने पिण्डस्थ ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि जिस ध्यान में निर्मल, नवीन अमृत से सघन चन्द्रमा के समान पवित्र, ज्ञानलक्ष्मी से आलिंगित सर्वज्ञ के समान, सुवर्णमय मेरु पर्वत पर अवस्थित होकर समस्त प्रपञ्च से रहित हुए विश्वरूप समस्त पदार्थों के आकार से परिणत और महान् देवों के समूह से भी अचिन्त्य प्रभाव वाले आत्मा का स्मरण किया जाता है उसे जिनागम रूप महासमुद्र के पार को प्राप्त हुए गण पर देवों ने पिण्डस्थ ध्यान कहा है। श्वेत किरणों से विस्फुटित होते हुए एवं अष्ट महाप्रातिहार्यों से परिवृत्त जो निजरूप है, उसका ध्यान भी पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। इसका महत्व प्रतिपादित करते हुए शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार सूर्य की समीपता पाकर उल्लू निरर्थकता का अनुभव करते हुए दुर्वासना को छोड़ दिया करते हैं उसी प्रकार इस पिण्डस्थ ध्यान रूप धन से संपन्न योगी की समीपता को पाकर विद्यामण्डल, यन्त्र, मन्त्र, इन्द्रजाल व दूसरे के घात लिए किया जाने वाला क्रूर कर्म तथा सिंह, अशी विष, सर्प, दैत्य, हाथी और शारभ ये सब निरर्थकता को प्राप्त होते हैं। निष्प्रभ हो जाते हैं। साथ ही शाकिनी, दुष्टग्रह और राक्षस आदि भी दुर्वासना अर्थात् अपने दुष्ट स्वभाव को छोड़ देते हैं। इस पिण्डस्थ में महान् शक्ति है। इस ध्यान का ध्याता योगी अपने दृढ़तर अभ्यास के फलस्वरूप थोड़े समय में
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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