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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 53 श्रावक का लक्ष्य : पंचम गुणस्थान से ऊपर जाने का होता है। वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव करके, प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्रमशः अभाव करता हुआ ग्यारह प्रतिमाओं के एकदेश चारित्र का पालन करता है और आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाता जाता है। जब वह प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव कर लेता है, तब मुनिपद को ग्रहण करने की शक्ति या योग्यता आ जाती है और उसका पुरुषार्थ एकदेश-चारित्र से सकल चारित्र के पालन में लग जाता है। सकल चारित्र में बारह प्रकार के तप (छह आभ्यन्तर तप व छह बाह्य तप) षट्आवश्यक, पाँच समिति, तीन गुप्ति और दस धर्म का पालन करते हुए श्रमणाचार्य बनता है तथा निरन्तर २२ परीषहों को समतापूर्वक सहता हुआ बारह भावनाओं का चिन्तवन करता रहता है। उपसंहार - मोक्ष के अभिलाषी श्रावकों का कर्त्तव्य है कि वे मोक्ष का उपाय अपनावें तभी उसकी प्राप्ति हो सकती है। ऐसी स्थिति में पहले अपूर्ण या विकल रत्नत्रय ही सही, उसे प्राप्त करें, धारण करें। पश्चात् वह समग्रता को प्राप्त होता है। जो श्रावक यह चाह करत है, मुक्ति मुझे प्रापत होवै। उसका यह कर्तव्य कहा है, रत्नत्रय को वह सैवे।। चाहे वह अपूर्ण ही होवे, तो भी धारण है करना। क्रम-क्रम से पूरण होता है, मुक्ति रमा अन्तिम वरना।। संदर्भ : १. विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम्। यत्तस्माद विचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम्।।१५।। पुरुषार्थ २. गृहीणा त्रेधा त्रिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षा वृतात्मकं चरणं। पंच त्रि चतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यामाख्यातम्।।५१-रत्न.।। ३. मरणेऽवश्यंभाविनि कषाय सल्लेखना तनूकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्मि।।१७७- पुरुषा. ४. इति रत्नत्रयमेतत प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन। परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता।।२०९।। - निदेशक, वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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