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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 रहित, निर्मल परिणामी होता है। आचार्य श्री कहते हैं - चारित्रं भवति यतः समस्त सावध योग परिहरणात्। सकल कषाय विमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्।।३९।। मोह कर्म से रहित योग जब, पाप रहित हो जाते हैं। अरु कषाय के नष्ट हुए से, निर्मलता पा जाते हैं।। स्थिरता आ जाती है तब, नाम उसी का है 'चारित'। वह है आत्म रूप का दर्शन, उदासीनता अवतारित। इस सम्यक्चारित्र को पाने के लिए श्रावक १२ व्रतों का पालन, ग्यारह प्रतिमाओं के माध्यम से करता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक के १२ व्रत बताये हैं। वे बारह व्रत-तीन प्रकार के चारित्र के रूप में उपदिष्ट हैं - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। वे १२ व्रत इस प्रकार हैं-५ अणुव्रत हैं:- अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण व्रत, ३ गुणव्रत हैं-दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ४ शिक्षाव्रत हैं-सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाणव्रत, अतिथिसंविभाग व्रत ये ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत सप्तशील के नाम से भी जाने जाते हैं। उक्त १२ व्रतों को धारण करता हुआ ग्यारहवीं प्रतिमा में वह उत्कृष्ट श्रावक का दर्जा प्राप्त कर लेता है जो श्रमण (साधु) बनने की पूर्व तैयारी है अर्थात् वह पांचवें गुणस्थान से छटवें- सातवें गुणस्थान में पहुँचने का पुरुषार्थ करता है। सल्लेखना एवं समाधिमरण - मरण का काल निकट होने पर श्रावक शान्तभाव से अपने शरीर का त्याग करे, इसीलिये आहार और कषाय के त्याग रूप सल्लेखना की भावना करनी योग्य है। सम्यक् प्रकार से काय व कषाय के क्षीण करने को सल्लेखना कहते हैं। इससे अहिंसा व्रत का पालन भी हो जाता है। सल्लेखना करने में आत्मघात का दोष नहीं लगता है। धर्मात्मा श्रावक-पुरुष को जब शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न हो जाती है, तो उसे दूर करने के लिए औषधादिक का सेवन करता है। परन्तु यदि रोग असाध्य हो, बचना सम्भव नहीं हो तो, तो सल्लेखना धारण कर धर्म की रक्षा करता है।
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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