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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 आप्तमीमांसाभाष्यम् ः भु अकलङ्कदेव की एक महत्त्वपूर्ण कृति 13 • डॉ. गोकुलचन्द्र जैन भु अकलङ्क देव कृत ‘आप्तमीमांसाभाष्यम्' स्वामी समन्तभद्र विरचित 'आप्तमीमांसा' एक सौ चौदह (११४) कारिकाओं पर संस्कृत गद्य में निबद्ध मध्यम परिमाण का भाष्य - टीका ग्रन्थ है । स्वामी समन्तभद्र प्राकृत जैनागम तथा आगमिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों को युग की आवश्यकता के अनुरूप संस्कृत में प्रतिपादित करने की परम्परा को प्रवर्तित करने वाले आचार्यों में अग्रगण्य हैं। उन्होंने अपनी कृति में प्राकृत आगमों में प्रतिपादित सिद्धान्तों की संस्कृत में दार्शनिक और प्रमाणशास्त्रीय व्याख्या करके अपने युग में तीव्रगति से हो रहे दार्शनिक चिन्तन को एक नयी दिशा दी । एकान्तवादी चिन्तन की विभिन्न विचारधाराओं को तार्किक आधार पर अस्वीकार्य बताया और वस्तु का स्वरूप अनेकान्त द्वारा प्रतिष्ठापित किया। समन्तभद्र ने अपनी कृति 'आप्तमीमांसा' में किसी भी दर्शन का नाम नहीं लिया, तथापि जिन सिद्धान्तों की उन्होंने समीक्षा की, वे किसी न किसी दार्शनिक चिन्तनधारा में विद्यमान थे, या विकसित हो रहे थे। अकलङ्क के समय तक विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदाय सुनिश्चित हो गये थे और उनके सिद्धान्तों को स्पष्टतया परिभाषित करने की एक लम्बी यात्रा तय हो चुकी थी। यही कारण है कि अकलङ्क ने अपने 'आप्तमीमांसाभाष्यम्' में समन्तभद्र की समीक्षा को विभिन्न दर्शनों से स्पष्ट रूप में सम्बद्ध करके उनकी समीक्षा को और अधिक परिपुष्ट करते हुए आगे बढ़ाया। अकलङ्क ने प्राचीन प्राकृत आगमों तथा आगमिक ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का तलस्पर्शी परिशीलन किया था। स्वामी समन्तभद्र की प्रसन्न और पैनी तार्किक दृष्टि उन्हें धरोहर के रूप में प्राप्त हुई थी । संस्कृत भाषा में उन्होंने प्रकाण्ड पाण्डित्य अर्जित किया और अपने युग तक विकसित
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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