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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
मोहतिमिर के दूर हुएसे, सम्यग्दर्शन पाता है। उसको पाकर साधु समकिती, श्रेष्ठ ज्ञान उपजाता है। फिर धारण करता है शुचितर, सुखकारी सम्यक्चारित्र।
रहे राग ज्यों नहीं पास कुछ, और द्वेष नस जावे मित्र॥ संलेखना अर्थात् समाधिमरण का स्वरूप देखिये -
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रूजायाँ च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनामाहुः सल्लेखनामार्याः॥६/१॥ आ जावे अनिवार्य जरा, दुष्काल, रोग या कष्ट महान्। धर्म हेतु तब तन तज देना, सल्लेखनामरण सो जान॥ अन्त समय का सुधार करना, यही तपस्या का है फल।
अतः समाधिमरणहित भाई, करते रहो प्रयत्न सफल॥६/१॥ जैन दर्शन में भावना को अधिक महत्व दिया गया है। जैन शास्त्रों में १२ भावनाओं का वर्णन आता है। ये भावनाएँ अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक बोधिदुर्लभ और धर्म है। पं. नवरत्न के इन्हीं भावनाओं को ध्यान में रखकर कवित्त छन्द में अनित्य भवना और अन्तिम धर्म भावना के उदाहरण यहाँ दुष्टव्य हैं -
अनित्य भावना देह गेह सृजने में लगे क्या हो गिरिधर,
देह गेह जीवन अनित्य सब मानिये। पीपल के पान सम कुंजर के कान सम,
बादी की छांह सम इन्हें चल जानिये। बिजली की चमक सी पानी के बुदबुद सी,
इन्द्र के धनुष सी ये सम्पति प्रमानिये। दया दान धर्म में लगाके इसे भली भांति, धारिये परोपकार सुख मन आनिये॥
धर्म भावना बाहरी दिखावटों को रहने न देता कहीं,
सारे दोष दूर कर सुख उपजाता है। काम क्रोध लोभ मोह रागद्वेष माया मिथ्या,
तृष्णा मदमान मल सबको नसाता है। तन,मन,वाणी को बनाता है विशुद्ध और, पतित न होने देता, ज्ञान प्रकटाता है। गिरिधर धर्म प्रेम एक सत्य जग बीच, परमात्म तत्व में जो सहज मिलाता है।