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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
वीतराग देव में ज्ञानगुण का पूर्ण रूप है अतः वे शान्त व शंकर है। वे मोक्षमार्गीय विधाता ब्रह्मा व सद्गुणी रूपी विष्णु पुरूषोत्तम मान्य है। इसी आशय भाव का मूल पाठ व अनुवाद देखें :
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात्।
धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानात्व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि॥२५॥
तू बुद्ध है विवुध-पूजित बुद्धिवाला, कल्याण कर्तृवर शंकर भी तुही है। तू मोक्ष मार्ग विधि कारक है विधाता,
है व्यक्त नाथ, पुरूषोत्तम भी तुही है॥२५॥ इस स्तोत्र में तीर्थकर देव के ज्ञान, पूजा सहित अतिशयों व अशोक वृक्ष, स्फटिक सिंहासन, भामण्डल आदि अष्टप्रातिहार्यों का वर्णन २८ से ३६ तक के छन्दों में बड़ा प्रभावी है। देखिये छत्रत्रय प्रातिहार्य के वर्णन का मूल पाठ व उसका अनुवाद :
छत्र-त्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्तमुच्चैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्। मुक्ता-फल-प्रकरजालविवृद्ध-शोभं, प्रख्यापयत् त्रिजगतःपरमेश्वरत्वम्॥३१॥
मोती मनोहर लगे नभ में सुहाते, नीके हिंमाशुसम, सूरजतापहारीहैं तीन छत्र शिर पै अतिरम्य तेरे,
जो तीन लोकपरमरेश्वरता बताते॥३१॥ जैन दर्शन में धर्म का मूलाधार विनय माना गया है। भक्ति के भावों से सराबोर हो कवि फिर प्रभू की महत्ता को खूब बढ़ा कर वर्णित करता है। जैनाचार्य मानतंग ने भी इसी आशय से काव्यात्मक वर्णन किया है। वे जब भक्ति में लय हो जाते हैं तब उनकी साररी बेड़ियाँ, ताले टूटते जाते हैं। पं. नवरत्न ने उसी भाव का जीवन्त रूप से इस प्रकार छन्द में किया :
आपाद-कण्ठ-मुरू श्रृंखल-वेष्टिताङ्गाः गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः।
त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यःस्वयं विगत-बन्ध भया भवन्ति॥४६॥ सारा शरीर जकड़ा दृढ़ सांकलों से, बेड़ी पड़े छिल गई जिनकी सुजांघे, त्वन्नाम-मंत्र जपते-जपते उन्हों के, जल्दी स्वयं झड़ पड़े सब बन्ध बेड़ी॥४६