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________________ 88 अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि प्रभाणामुद्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्। सम्यक्प्रणम्य जिन पादयुगं युगादावालम्बनं भव जले पततां जनानाम्॥१॥ हे भक्त-देव-नत-मौलि-मणिप्रभा के उद्योतकारक, विनाशक पाप के हैं, आधार जो भवपयोधि पड़े जनों के, अच्छीतरा नमन कर प्रभु के पदों की॥१॥ यः संस्तुतः सकल-वाङ्गमय-तत्वबोधादुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथै। स्तोत्रैर्जगत्रियं-चित्तहरैरुदारेः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्॥२॥ श्री आदिनाथविभु की स्तुति मैं करूँगा, की देवलोकपतिने स्तुति है जिन्हों की अत्यन्त सुन्दर जगत्त्रय-चित्तहारी सुस्तोत्र से, सकल शास्त्र रहस्य पाके॥२॥ ४८ छन्दों का यह स्तुति काव्य भारतीय जैन धर्म साहित्य के इतिहास में अपने साहित्यिक सौन्दर्य के लिए अनूठा माना जा सकता है। इसमें वीतराग देव के अनन्त सौन्दर्य एवं तेज का प्रभावी वर्णन है। पं. नवरत्न ने इसमें जगह-जगह पर व्यतिरेक अलंकारों द्वारा वीतराग प्रभू को चन्द्र, सूर्य, समुद्र, कमल, पर्वत व दीप आदि रूपकों से सम्बद्ध करते हुए उनके अप्रतिम वैशिष्ट्य को संजोया है। वीतराग देव ब्रह्म, ईश्वर, योगीश्वर व शुद्ध चैतन्यादि है। इसी भाव का मूल पाठ और उसका पं. नवरत्न कृत अनुवाद पठन योग्य है। त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्यमाद्यं, ब्रह्माण-मीश्वरमनन्तमनड्.गकेतुम्। योगीश्वरं विदित-योग-मनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।।२४॥ योगीश, अव्यय, अचिंत्य, अनङ्गकेतु, ब्रह्मा, असंख्य, परमेश्वर, एक नाना, ज्ञान स्वरूप, विभु, निर्मल, योगवेत्ता, त्यों आद्य, संत तुझको कहते अनन्त॥२४॥
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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