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________________ अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013 विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात होता है कि पं. गिरिधर शर्मा 'नवरत्न' का जैन आचार्यों, तपस्वी मुनियों से प्रत्यक्ष और प्रगाढ़ सम्बन्ध रहा है तथा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में सृजित जैन साहित्य की समृद्ध परम्परा से न केवल वे सुपरिचित थे वरन् इस विशाल साहित्य संसार का उन्होंने चिंतन, मनन और भावनात्मक हृदय से मंथन भी किया था। स्थानकों, मंदिरों, उपाश्रयों में होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों व पूजा विधि विधानों से भी उनका परिचय रहा। वे जैन आचार्यों को नियमित रूप से स्वाध्याय करते और भक्तिमग्न हो 'भक्तामर स्तोत्र' व 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' का पाठ करते देखते सुनते तथा जैन श्रावकों को त्याग प्रत्याख्यान एवं व्रत ग्रहण करते देखते थे। उन्होंने फिर जन-जन में जैन धर्म के साहित्य को प्रसारित करने हेतु इस धर्म की उपासना, साधना में प्रयुक्त होने वाले स्तुति व नीतिकाव्यों का सरल व सुबोध शैली में हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद किया जो भारतीयों का कण्ठहार बना और आज तक भी बना हुआ है। 87 पं. नवरत्न कृत जैनधर्म, दर्शन से सम्बद्ध जो श्रेष्ठ संस्कृत, प्राकृत ग्रंथानुवाद हैं वे यद्यपि सम्पूर्ण रूप में हमें अनेक लम्बे प्रयासों के बाद भी उपलब्ध नहीं हो पाये हैं। परन्तु पुस्तकालयों से हमें जो जैनग्रंथ सामग्री व उनकी मौलिक जैन रचनाएँ मिली उनके आधार पर जैनधर्म, दर्शन से सम्बद्ध पं. नवरत्न द्वारा रची रचनाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है।' (प्रकाशित) १. भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद) २. कल्याण मंदिर स्तोत्र (हिन्दी पद्यानुवाद) ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४. बारह भावना ५. जैन स्तवरत्नमाला ६. एकीभाव ७. विषापहारहारस्तोत्र एवं ८. भूपाल चौबीसा । (अप्रकाशित) १. श्री भक्तामर समस्या पूर्ति (संस्कृत) २. सुक्ति मुक्तावली (हिन्दी) काव्य) ३. श्री कल्याण मंदिर (समस्या पूर्ति संस्कृत) ४. सभारंजन स्तोत्र ५. सामयिक सर्वतीर्थंकर स्तवन । पं. नवरत्न द्वारा प्रणीत उक्त कृतियों में प्रथमतया जैन भक्ति परक रचनाओं में उन्होंने साकार उपासना रूप में तीर्थकरों की स्तुति की है। प्रथम तीर्थकर स्वामी आदिनाथ या ऋषभदेव है । 'भक्तामर स्तोत्र' में इन्हीं की भावभरी स्तुति है। इस काव्य में स्वामी आदिनाथ के गुण-निष्पन्न व्यक्तित्व का अनूठा उदाहरण है और हर एक तीर्थंकर ( वीतराग देव ) पर समान रूप से लागू होता है। - मूल रूप से इस स्तोत्र के रचियता जैन आचार्य मानतुंग थे तथा वे विक्रम की ७वीं सदी में थे । इतिहास के कुछ विद्वान उन्हें ११वीं सदी का भी बताते हैं । इस रचना के पीछे की एक रोचक किवदन्ती इस प्रकार है कि उज्जैन में राजा भोज के दरबार में मयूर भट्ट व बाण भट्ट नामक दो कवि विद्वान थे। इस राजा ने राजसभा में इन दोनों कवियों की प्रशंसा करते हुए यह चुनौती दी कि इनके समान कोई भी चमत्कारी विद्वान कवि यहाँ नहीं है। सभा में बैठे एक जैन श्रावक ने इसका प्रतिवाद करते हुए स्पष्ट कहा कि 'राजन' इसी नगरी में जैन आचार्य मानतुंग है, यदि आप उन्हें आमंत्रण करें तो वे अपने धर्म की प्रभावना के लिए विशेष चमत्कार दिखा सकते हैं। राजा ने उन्हें आमंत्रित कर उन्हीं के आदेश पर उन्हें एक अंधेरे कमरे में बन्द ४८ ताले जड़ दिये। मुनि मानतुंग ने फिर अपने हृदय कमल में स्वामी आदिनाथ को स्थापित कर उनसे अपना आत्म तादात्म्य जोड़ा और भक्ति रस कें डूब कर ४८ श्लोकों की रचना की। ऐसा कहा जाता है कि एक-एक श्लोक उनके श्रीमुख से जैसे-जैसे उच्चारित होता गया वैसे-वैसे एक-एक ताला टूटता गया इस प्रकार आचार्य मानतुंग बन्धन से मुक्त हुये और उनके चमत्कार से जैनधर्म की विशेष प्रभावना हुई। पं. नवरत्न ने इसी भक्तामर स्तोत्र को ही इसके मूल छंद वसंततिलका में अपना हिन्दी अनुवाद किया जो अत्यन्त हृदयग्राही, बोधगम्य तथा मूल भावना से भरा है। प्रारंभ के दो मूल छन्द व उनका हिन्दी अनुवाद देखें।'
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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