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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 यह जानना चाहिये कि तुच्छबुद्धि पुरुष यह विचारते हुए कि सचित्त पर रख देता है अथवा ढक देता है, जिससे संयमीजन ग्रहण नहीं करते हैं। धनलाभ अथवा अन्य किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिये द्रव्योपार्जन को नहीं छोड़कर दूसरे के हाथ से दान दिलवा देता है और स्वयं समर्थ होते हुए, किसी रोग, सूतक पातक आदि का प्रतिबन्ध नहीं होते हुए भी उसको दूसरों से कराना अत्यन्त अनुचित है। इसी प्रकार आचार्य सम्यग्दर्शन जो व्रतों के प्रारंभ में अंक का काम करता है और सल्लेखना व्रत जो उस श्रावक के व्रतों का फल है वह शून्य बढ़ाकर फल में गुणित वृद्धि करता है, उसके भी अतिचार निरूपित करते हैं। सम्यग्दर्शन के अतिचार - इन सभी व्रतों का जो आधार स्वरूप है, उस सम्यग्दर्शन के अतिचारों का भी वर्णन आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने किया है। ये पांचों अतिचार तीनों सम्यग्दर्शनों में से सिर्फ क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के चल, मल, अगाढ़ दोषों के कारण सम्भव होते हैं। वे अतिचार निम्न हैं- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दष्टि प्रशंसा और अन्यदष्टि संस्तव हैं। जीवादिक तत्त्वार्थों में, रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में, आगम में एवं इनके प्रणेता सर्वज्ञभगवान् में किसी भी प्रकार से संशय करना शंका नामक दोष है। सम्यग्दर्शनादि के प्रभाव से इहलोक और परलोक में विषय भोगों की आकांक्षा करना कांक्षा दोष कहलाता है। आप्त, आगम और साधुओं में जुगुप्सा अर्थात् घृणा करना विचिकित्सा है। बुद्ध, कपिल, कणाद आदि अन्य मतावलम्बियों को अन्य दृष्टि कहा गया है। ऐसे अन्यदृष्टि पुरुषों अथवा दर्शनों की मन से प्रशंसा करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है और उन्हीं की वचनों से स्तुति आदि करना अन्य दृष्टि संस्तव कहा गया है। यहां कोई शंका करता है कि प्रशंसा और संस्तव में क्या सूक्ष्म अन्तर है? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि- “मनसा मिथ्यादृष्टिज्ञानादिषु गुणोद्भावनाभिप्रायः प्रशंसा, वचसा तद्भावनं संस्तव इति।" अर्थात् मन से मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, चरित्र, तप आदि में प्रकृष्ट गुणपना प्रकट करने का अभिप्राय तो प्रशंसा है और वचन से उनके विद्यमान-अविद्यमान गुणों की भावना करते हुए उच्चारण करना संस्तव है। यहां पुनः कोई शंका करता है कि ये अतिचार तो श्रावक के हैं मुनियों के नहीं हो सकते ? समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - सूत्र में सम्यग्दृष्टि पद का ग्रहण किया गया है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में दोनों ग्रहण हो जाते हैं, क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ४-७ गुणस्थानों तक होता है। अतः यहां अगारी और अनगारी दोनों का ग्रहण हो जाता है। सल्लेखना के अतिचार - जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये पांच अतिचार हैं। आकांक्षा अथवा अभिलाषा करना आशंसा है। क्षणिक स्वभावी शरीर त्याज्य है फिर भी शरीर की स्थिति में बने रहने की इच्छा करना जीविताशंसा है। रोगों के उपद्रव से व्याकुल होने पर संक्लेश हो जाने से मरने के लिये मानसिक विचार करना मरणाशंसा है। पूर्वावस्था में किये गये मित्रों के साथ क्रीड़ायें आदि पुनः स्मरण करना मित्रानुराग है। पूर्व में अनुभव में आये हुए प्रीतिविशेषों की स्मृतियों की निरन्तर अभ्यावृत्ति करना सुखानुबन्ध है। आगामी सुखों की वांछा करना निदान है। जैसेविद्याधर, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि के भोगों की आकांक्षा करना। ये अतिचार इसलिये हैं क्योंकि समाधिमरण के उपयोगी हो रही उत्कृष्ट आत्मविशुद्धि की क्षति के कारण हैं।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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