________________
अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
83
पर प्रथम तीन अतिचार संभव होते हैं। इसी भूख-प्यास की बाधा के कारण जिनपूजा, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्यों में उत्साह नहीं रह पाना ही अनादर की कोटि में आता है। इसी कारण से ही एकाग्रता नहीं होने से स्मृत्यनुपस्थान हो जाता है। ये व्रत का एकदेश विधात करने वाले होने से अतिचार कहे जाते हैं। ११. उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत के अतिचार सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुःपक्वाहार ये पांच इस व्रत के अतिचार कहे गये हैं।१० चित्त अर्थात् ज्ञान, जो इससे सहित वर्तन करता हुआ जीवित पदार्थ है वह सचित्त है। ऐसा आहार ग्रहण कर लेना सचित्ताहार है। ऐसे सचित्तआहार के संसर्ग मात्र हो रहे पदार्थ को ग्रहण करता है वह सचित्त सम्बन्धाहार कहलाता है। सचेतन पदार्थों से सम्मिलित हो रहे पदार्थ को ग्रहण कर लेना सचित्त सम्मिश्राहार है। द्रव और वृष्य पदार्थ ग्रहण करना अभिषवाहार है। कुछ देर तक गलाकर जो शरबत आदि पदार्थ बना लिये जाते हैं वे द्रव पदार्थ हैं और इन्द्रियों के बल को बढ़ाने वाले, रसायन, वशीकरण, पौष्टिक रस ये सभी वृष्य पदार्थ (गरिष्ठ) कहलाते हैं। आधा पका अथवा अधिक पका पदार्थ का आहार करना दुःपक्वाहार है।
यहाँ विशेष यह जानना चाहिये कि - यदि कोई सचित्त आहार का त्यागी सचित्त का भक्षण कर लेने पर अनाचार हो जाना चाहिए तथापि आचार्य कहते हैं कि अज्ञान अथवा चित्त की एकाग्रता न होने से सचित्त भक्षण हो जाने पर भी व्रत के रक्षण की अपेक्षा है। अतः सचित्ताहार को भी अतिचार माना गया है। कोई पूँछता है कि सचित्तसम्बन्ध और सम्मिश्राहार में क्या अन्तर है तो आचार्य कहते हैं कि सचित्त सम्बन्ध में अचित्त के साथ सचित्त का केवल संसर्ग होता है और सम्मिश्र में अचित्त का सचित्त से क्वचित् मिलान हो जाता है, यही दोनों में अन्तर है। अभिषव और दुःपक्वाहार को आलस्य और आत्मसंक्लेश का कारण होने से अचित्त अथवा शुद्ध होने पर भी आचार्य ने व्रतियों की इन्द्रियमदवृद्धि न हो, इसलिये त्याग करने का उपदेश दिया है।
इसी व्रत में पांच अतिचार आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने भिन्न रूप से प्ररूपित किये हैं, क्योंकि आचार्य उमास्वामी द्वारा वर्णित अतिचार मात्र भोग पदार्थों में ही घटित होते हैं उपभोग पदार्थों में नहीं। उसी विसंगति को दूर करने के लिये उन्होंने ये पांच अतिचार बतलाये हैं विषयविषतोऽनुपेक्षा, अनुस्मृति, अतिलौल्य, अतितृषा और अतिअनुभव११ । १२. अतिथिसंविभागवत के अतिचार सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पांच अतिचार हैं।१२ मुनियों के दान योग्य अचित्त पदार्थों को सचित्त पदार्थ पर रख देना सचित्त निक्षेप नामक अतिचार है। जैसे सचित्त जल से आई हो रहे बर्तनों में खाद्य पदार्थ रख देना। खाद्य पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढक देना सचित्तापिधान कहा जाता है। पूर्व शब्द अधिकरणपने से कहा गया और यह तृतीयान्त पद है। अन्य दाता ही पर्याप्त हैं, मैं क्यों दान दूं, अथवा अन्य किसी को देने योग्य पदार्थ दे देना परव्यपदेश नामका अतिचार है। किसी बड़े समारोह में दान देते हुए भी अन्तरंग में पात्र का आदर नहीं करना अथवा हर्ष नहीं मनाना मात्सर्य है। अथवा अन्य दाताओं के गुणों से ईर्ष्या करना, मात्सर्य है। संयमियों के अयोग्य काल में दान का अभिप्राय रखना कालातिक्रम है। यहां विशेष