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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
कहलाता है। इसके तीन भेद हैं - मिथ्यादृष्टियों के काव्य आदि का निरर्थक चिंतन करना मनोगत, बिना प्रयोजन परपीड़ाकारी बकवाद करना वाग्विषय और बिना प्रयोजन चलते, बैठते सचित्त, अचित्त फल-फूलों को छेदना, तोड़ना, भूमि खोदना, अग्नि जलाना, विष देना आदि आरंभ काय गोचर असमीक्ष्याधिकरण हैं। जितने पदार्थों से उपभोग, परिभोग का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है तो भी उनसे अधिक अतिरिक्त पदार्थों को रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है।
यहां विशेष यह जानना चाहिये कि- कन्दर्प, कौत्कुच्य, उपभोगपरिभोगानर्थक्य, प्रमादचर्या में ग्रहण हो जाते हैं। मौखर्य पापोपदेश विरति का अतिचार है। असमीक्ष्याधिकरण दुःश्रुति, पापोपदेश, हिंसादान और अपध्यान का अतिचार है। ९. सामायिक व्रत के अतिचार योगदृष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पांच अतिचार हैं। काय, वचन और मन का अवलम्बन लेकर जो आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन होता है वह योग है। दुष्प्रणिधान शब्द में दुर् उपसर्ग का अर्थ दुष्टता अथवा अन्य सावध परणतियों से है। पाप व्यापारों में मन, वचन, काय को लगाना दुष्प्रणिधान है। इस प्रकार मन दुष्प्रणिधान, वचन दुष्प्रणिधान और काय दुष्प्रणिधान, ये तीन अतिचार हो जाते हैं। विशुद्ध मानसिक विचारों के करने में उदासीनता धारण करके क्रोधादि अथवा अन्य सावध कार्यों में मन की प्रवृत्ति करना मनोदुष्प्रणिधान है। अतिशीघ्र, अतिबिलम्ब, अशुद्ध, धृष्ट, स्खलित, अव्यक्त, पीड़ित, दीन, चपल, नासिकास्वरमिलित आदि शब्दों का प्रयोग करना वचन दुष्पणिधान है। शरीर के हाथ, पैर, सिर को स्थिर नहीं रखना, पढ़ते हुए सिर हिलाना, नासाग्र दृष्टि स्थिर न रख पाना आदि कायदुष्प्रणिधान हैं। शुभकार्यों के प्रति अर्थात् सामायिक आदि में पूर्ण उत्साह नहीं रहना अनादर नामका अतिचार है। सामायिक करने में चित्त की एकाग्रता नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि मनोदुष्प्रणिधान और स्मृत्यनुपस्थान में क्या अन्तर है ? तो आचार्य समाधान करते हुए कहते हैं कि क्रोध आदि का उद्रेक होने से बहुत देर तक सामायिक में चित्त की स्थिरता नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है और मानसिक चिन्ताओं का परिस्पंदन होने से मन की एकाग्रता नहीं कर पाना मनोदुष्पणिधान है। यही दोनों में अन्तर है। १० प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान,अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये प्रोषधोपवास के अतिचार हैं। दया पालन के लिये बार-बार निरीक्षण करना प्रत्यवेक्षण है। कोमल उपकरण के द्वारा प्रतिलेखन करना प्रमार्जन है। प्रत्यवेक्षण, प्रमार्जन के बिना प्रमाद पूर्वक शीघ्र मल-मूत्र, खकार आदि करना पहला अतिचार है। बिना देखे, बिना शोधे स्थान से पूजादि के उपकरण, पहनने, ओढ़ने आदि के वस्त्र शीघ्रता से खींचकर ग्रहण करना दूसरा अतिचार है। बिना देखे, बिना शोधे ही दुपट्टा, चटाई, बिछौना आदि का उपयोग जल्दी से करना तीसरा अतिचार है। स्वाध्याय, संयम, जिनपूजा आदि आवश्यक कार्यों में उत्साह नहीं होना अनादर है। भूख प्यास से पीड़ित होने पर उपवास के अनुष्ठान को करना भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान पांचवां अतिचार है।
यहां विशेष जानना चाहिये कि दूर की ओर देखते रहना अथवा निकृष्ट प्रतिलेखन से मार्जन करना भी इन्हीं अतिचारों में गर्भित हो जाता है। भूख-प्यास आदि से कुछ आकुलता उपजने