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अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013
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करना आदि के नियत सीमा से बाहर चले जाना अतिचार है। पूर्व में निश्चित की गई पूर्व देश की अवधि में से घटाकर उसको पश्चिम देश की अवधि में लोभ वशात् जोड़ देना क्षेत्रवृद्धि है। ग्रहण किये गये मर्यादा का पीछे स्मरण नहीं रहना अथवा न्यून अधिक रूप स्मरणान्तर कर लेना स्मृत्यन्तराधान है।
यहाँ विशेष यह जानना चाहिये कि श्रावक को ऊर्ध्व दिशा में वायुयानादि की ऊँचाई के अनुसार और अधो दिशा में समुद्रादि में पनडुब्बी आदि से नीचे जाने के अनुसार ही सीमा का निर्धारण करना चाहिये । यदि फिर इनका अतिक्रमण करता है, तो अतिचार है। कोई यह शंका कर सकता है कि क्षेत्रवृद्धि का अन्तर्भाव तो परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचारों में हो जाता है, तो यहां कहना पुनरुक्त दोष है। समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं कि वहां परिग्रहवृद्धि से क्षेत्र के परिमाण का अतिक्रम कर दिया जाता है किन्तु यहां क्षेत्र को बढ़ाकर अतिक्रम रूप से गमन कर लिया गया है, क्योंकि यहां दिशा के परिमाण का लक्ष्य है। अज्ञान, अचातुर्य, सन्देह, अतिव्याकुलता, अन्यमनस्कता, अतिलोभ आदि के कारण स्मृति विभ्रम हो जाता है। ये अतिचार मुख्य रूप से प्रमाद, मोह और उद्भ्रान्ति आदि से हो जाते हैं। किसी के १०० योजन का परिमाण था, वह भूल जाता है कि मैंने कितना परिमाण किया था और वह आगे जाकर पुनः वापस आ जाता है तब तक तो अतिचार है और यदि वह आगे जाता है तो अनाचार हो जाता है।
७. देशविरतिशील के अतिचार
आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात, पुद्गलक्षेप, ये पांच अतिचार वर्णित किये गये हैं।" अपने संकल्पित स्थान में स्थित व्रती के प्रयोजनवशात् किसी पदार्थ को अपने मर्यादा से बाहर प्रदेश से मंगाता है उसे आनयन दोष कहा जाता है। अपनी सीमा से बाहर किसी को वस्तु लाने को भेजता है तो वह प्रेष्यप्रयोग अतिचार है। सीमित क्षेत्र में बैठे हुए अथवा खड़े हुए सीमा से बाहर के व्यक्ति को उद्देश्य करके खांसना, ताली बजाना, फोन आदि से संकेत करना शब्दानुपात है। अपना कार्य शीघ्रता से करवाने के लिये अपना रूप सीमित क्षेत्र से बाहर दिखाना रूपानुपात नामक अतिचार है। ग्रहण किये गये सीमित क्षेत्र के बाहर कार्य में संलग्न लोगों को प्रेरित करने के लिये, पत्थर, मिट्टी आदि को फेंकना और चिट्ठी, टेलीग्राम आदि भेजना पुद्गलक्षेप कहलाता है।
यहां यह विशेष जानना चाहिये कि यह व्रत हिंसा से बचने के लिये ग्रहण किया है, फिर अन्य किसी को अपने पास बुलाने अथवा बाहर क्षेत्र में भेजने से भी हिंसा तो होगी। अपनी अपेक्षा ज्यादा हिंसा होगी, क्योंकि वह स्वयं आता अथवा जाता है तो ईर्या समिति का प्रयोग करता परन्तु जो अन्य व्यक्ति है, वह ईर्यापथ आदि का ध्यान नहीं रखता है। शब्दानुपातादि में वह विचार करता है कि अमुक कार्य शीघ्रता से हो जायेगा, ऐसा उतावलापन रहता है, जिस कारण से वह दोष लगाता है। इनमें थोड़ी सी हिंसा बचाने के विचार से अधिक हिंसा का भागी बन जाता है।
अनर्थदण्डविरतिव्रत के अतिचार
८.
राग के उद्रेक से हंसी मिश्रित अशिष्ट, अश्लील वचनों का प्रयोग करना कन्दर्प है। तीव्र राग और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से दूषित चेष्टायें जैसे भांड, विदूषक आदि करते हैं, करना कौत्कुच्य कहलाता है। जिसमें धृष्टता अधिक हो और पूर्वापर सम्बन्ध बिना व्यर्थ बकवाद करना मौखर्य कहा जाता है। बिना प्रयोजन अधिक पदार्थों का निर्माण करा लेना असमीक्ष्याधिकरण अतिचार