________________
अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
संकेत करना आदि रागवशात् अनेक रमण कुचेष्टायें करना दूसरा और तीसरा अतिचार है। कामसेवन के अंगों के अतिरिक्त अंगों में क्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा है। रतिक्रिया में अतिशय प्रवृद्ध परिणाम होना कामतीव्राभिनिवेश है। अर्थात् कामक्रीड़ा में संतुष्ट नहीं होने पर अनवरत प्रवृत्ति करना अतिचार है।
यहाँ कोई शंका करता है कि कोई दीक्षित, अतिबाला, तिर्यञ्चनी, चित्र, अनेक अचेतन स्त्रियाँ अथवा इसके विपरीत पुरुषों में भी ऐसा ही जानना आदि के साथ रतिक्रिया के भाव रखता है तो इसे कौन से अतिचार में रखा जाय तो इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्दि स्वामी कहते हैं कि- उपर्यक्त स्त्री अथवा पुरुषों में कामभाव को कामतीव्राभिनिवेश में माना जायेगा, क्योंकि कामभाव के अतिरेक में ही ऐसे परिणाम होते हैं। ५. परिग्रह परिमाणव्रत के अतिचार क्षेत्र-वास्तु के परिमाण का अतिक्रम अर्थात् उल्लंघन करना प्रथम अतिचार है। धान्य उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र और निवास स्थान को वास्तु कहते हैं। हिरण्य और सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण करना द्वितीय अतिचार है। व्यवहार में क्रय-विक्रय के उपयोगी वस्तु का विनियम करने वाले पदार्थ हिरण्य कहलाते हैं। जैसे- चांदी, मोहर, गिन्नी, सिक्का आदि। धन-धान्य के परिमाण का अतिक्रम करना तृतीय अतिचार है। गेहूँ, चावल आदि धान्य हैं। गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा आदि धन हैं। संख्या निश्चित किये गये दासी-दासों का अतिक्रम करना चतुर्थ अतिचार है। वस्त्र, बर्तन, गाड़ी, पलंग आदि वस्तुएं कुप्य में गर्भित हो जाते हैं। इनका अतिक्रम करना पंचम अतिचार है।
यहाँ विशेष यह जानना चाहिये कि सीमा करने वाली दीवार अथवा बाड़ आदि हटाकर दूसरे घर अथवा खेत को मिला लेने से, लोभ के वश से सीमा से अधिक सोना-चांदी आदि होने रिश्तेदारों अथवा परिचितों को यह कहकर देना कि जब जरूरत होगी तब वापस ले लूंगा, अन्य किसी को धन-धान्य इसलिये दे देता है कि अपने पास रखे धान्यादि को बेच दूंगा अथवा भोग कर लूंगा तब वापस ले लूंगा, गाय, घोड़ी, दासियां, चाकर आदि में गर्भवाली की अपेक्षा अथवा कुछ समय पश्चात् अपने व्रत को यथावस्थित कर लूंगा, ऐसा विचार कर निश्चित की गई संख्या का अतिक्रम अर्थात् उल्लंघन कर देता है। अतः अतिचार हो जाते हैं क्योंकि तीव्रलोभ का चारों ओर से आवेश होने से प्रतिज्ञात प्रमाणों का भूल जाना संभव हो जाता है।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने इसके पांचों अतिचार भिन्न प्रकार से निरूपित किये हैं जो इस प्रकार हैं- अतिवाहन, अतिसंग्रह, विस्मय, अतिलोभ और अतिभारवहन। ये पांचों अतिचार संतोष को घातने में एकदेश रूप से अनुकूल होते हैं, इसलिये अतिचार माने गये हैं।
इस प्रकार ये पांचों अणुव्रतों के अतिचार हैं। अब तीन गुणव्रतों के अतिचारों को कहते हैं - ६. दिग्व्रत के अतिचार ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये पांच अतिचार दिग्विरमणव्रत के हैं। सीमित की जा चुकी दिशा की अवधि का उल्लंघन कर देना अतिक्रम कहा जाता है। विशेष रूप से अतिक्रम करना व्यतिक्रम है। पर्वत, वृक्ष, मीनार आदि पर ऊपर चढ़ जाना, नीचे कुआं, बावड़ी आदि में उतरना और तिर्यक् में बिल, गुफा, सुरंग आदि में प्रवेश