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________________ अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013 यहाँ आचार्यवर विद्यानन्दि स्वामी का आशय यह है कि अहिंसाव्रत के प्रमादयोग से किये गये बन्ध आदि हैं वे ही अतिचार हैं। यदि इनमें प्रमादयोग नहीं है और जीवों का हितकारी है तो वे अतिचार की कोटि में नहीं आते हैं। जैसे- कुआ, गड्ढा आदि में गिरने से रोकने के लिये पशु को रस्सी आदि से बांधना, पागल स्त्री-पुरुष को स्व-पर घात को रोकने के लिये सांकल आदि से बांधना, पागल अथवा भूतावेश की चिकित्सा के बेंत या थप्पड़ आदि से ताड़ना, नाक-कान आदि को दबाना उपद्रवी छात्र का गुरु और माता-पिता आदि के द्वारा पीटा जाना, शल्य चिकित्सक द्वारा फोड़ा आदि को चीरना आदि, आवश्यकतानुसार उंगली, टांग आदि उपांगों का भी छेद करना, हितेच्छु वैद्य द्वारा अन्न-पान रोक देना, गुरुजी अथवा पंडितजी के द्वारा उपवास आदि उपदेश देना, ये सब अतिचार की संज्ञा को प्राप्त नहीं होते हैं। इनमें विशेष बात यह है कि विशुद्धि के कारण होने वाले बन्ध आदि मल नहीं है और संक्लेश के कारण होते हैं तो अहिंसा व्रत के अतिचार हैं। यहां जीव के संपूर्ण प्राणों का वियोग करना वध से तात्पर्य नहीं है। यदि ऐसा (हत्या) करता है तो उससे अहिंसाव्रत का ही नाश हो जाता है। यहां यह विशेष जानना चाहिये कि इन अतिचारों को कदाचित् जानवरों पर घटाया गया है, परन्तु यहां अन्य भी अपने विवेक से योजित करना चाहिये । जैसे- अपने सेवक अर्थात् नौकर को पूरे समय अपने काम में बांधे रखना, काम सही नहीं करने पर मारना पीटना, उसके अंगों को छेदन करना, क्षमता से अधिक काम करवाना, भोजन के समय अतिरिक्त काम करवाना आदि ये भी अतिचारों में जोड़ा जाना चाहिये। अपने स्वजनों के प्रति भी यदि ऐसा ही व्यवहार करता है तो वह भी अहिंसाव्रत के अतिचारों में शामिल होगा। 78 यदि कोई शंका करता है कि ये अतिचार किस कारण से होते हैं ? तो उसका समाधान देते हुए आचार्य लिखते हैं कि संक्लेश परिणाम के वश से ये अतिचार उत्पन्न होते हैं। एक देश भंग और एकदेश क्षरण हो जाने से उक्त अतिचार होते हैं। इसी प्रकार सभी व्रतों के अतिचारों में जोड़ लेना चाहिये। २. सत्याणुव्रत के अतिचार सत्याणुव्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं मिथ्याप्रवर्तन, अन्यथाप्रवर्तन कराने वाले उपदेश देना मिथ्योपदेश है। जैसे- बौद्ध धर्म का पक्ष लेकर सर्वथा क्षणिक एकान्त में प्रवृत्ति करा देना, सर्वथा नित्य एकान्त में प्रवृत्ति करा देना अथवा समीचीन शास्त्रों का अन्य प्रकार से निरूपण कर देना आदि। संवृत अर्थात् ढके हुए अथवा गुप्त क्रिया विशेष का जो दूसरों की हानि करने के लिये प्रकाशित कर देना रहोभ्याख्यान है। जैसे स्त्री-पुरुषों द्वारा एकान्त में की गयी अथवा कही गई क्रियाविशेष को गुप्तरीति से जानकर अन्य लोगों के समक्ष प्रकट कर देना । अन्य के द्वारा नहीं कहे गये विषय को उसने इस प्रकार कहा था अथवा किया था ऐसे ठगने के लिये जो द्वेषवश लिख दिया जाता है, वह कूटलेखक्रिया है। जैसे- उस मनुष्य ने मरते समय यों अमुक को इतना भाग देने के लिये कहा था अथवा इस प्रकार अंगचेष्टा की थी। अपने अभिप्राय के अनुसार कुछ भी मनचाहा लिख दिया जाता है। सोना-चांदी आदि की धरोहर किसी महाजन के पास रख देने पर पुनः संख्या अथवा परिमाण भूल गये स्वामी का अल्पसंख्यक द्रव्य मांगने पर हीन द्रव्य के धरोहर की स्वीकृति को न्यासापहार कहा है। जैसे कि किसी महाजन के पास सौ मोहरों की धरोहर जमा करने वाले भोले व्यक्ति द्वारा भूल जाने से ९० मोहरें मांगने पर जानते हुए भी उसे ९० ही मोहरें देने को तैयार हो जाता है। अर्थ, प्रकरण, अंगविकार, भ्रूविक्षेप आदि से दूसरों की
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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