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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
से जो अतिचार उत्पन्न होते हैं, वे प्रायश्चित-वर्णित नयमार्ग से शुद्ध हो जाते हैं। इस विवेचन से यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि व्रतभंग के पांच प्रकार हैं, इन्हीं दोषों को ध्यान में रखकर ही यह संभव हो सकता है कि तज्जनित दोष अथवा अतिचार भी पांच ही हो सकते हैं।
अन्य ग्रन्थों में अतिचार श्रावक धर्म का वर्णन करने वाले जितने ग्रन्थ हैं, उनमें से व्रतों के अतिचारों का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशांगसूत्र (श्वेताम्बर ग्रन्थ) में ही सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। वही देखा जाय तो श्रावकाचारों में सर्वप्रथम रत्नकरण्डश्रावकाचार में अतिचारों का वर्णन प्राप्त होता है। जब तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित अतिचारों की तुलना उपासकदशांगसूत्र में वर्णित अतिचारों से करते हैं तो यह कहना एकदम उचित होगा कि- परस्पर में एक का दूसरे पर प्रभाव नहीं, अपितु एक ने दूसरे के अतिचारों का अपनी भाषा में अनुवाद भी किया है।
दोनों के अतिचारों में मात्र भोगोपभोग परिमाणव्रत के अतिचारों में अन्तर है। उपासकदशासूत्र में इस व्रत के अतिचार दो प्रकार से बताये गये हैं भोग की अपेक्षा अतिचार और कर्म की अपेक्षा। भोग की अपेक्षा अतिचार तत्त्वार्थसूत्र के समान ही हैं, परन्तु कर्म की अपेक्षा उपासकदशासूत्र में पन्द्रह अतिचार बतलाये गये हैं, जोकि खरकर्म के नाम से प्रसिद्ध हैं और पं. आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में जिनका उल्लेख किया है। यदि यहां कोई शंका करे कि इसी तरह आचार्य उमास्वामी ने भी क्यों नहीं बताये? तो इसका समाधान यही हो सकता है कि- पूज्य आचार्य उमास्वामी व्रतों के पांच-पांच अतिचारों को वर्णित करने की प्रतिज्ञा पहले ही कर चुके हैं और उपासकदशासूत्रकार ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की है।
इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार में वर्णित अतिचारों में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। परिग्रह परिमाण व्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत में से तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचारों में निश्चित संख्या का अतिक्रमण है और भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार मात्र भोग पर ही घटित होते हैं, जबकि व्रत के नामानुसार अतिचार भोग और उपभोग दोनों पर घटित होना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार के कर्ता पूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी जैसे तार्किक आचार्य के हदय में यह बात खटकी, इसलिये उन्होंने उक्त दोनों व्रतों के नये ही प्रकार से पांच-पांच अतिचारों का निरूपण किया जो कि उपर्युक्त दोनों आपत्तियों से रहित हैं।
अब आचार्य उमास्वामी द्वारा वर्णित और आचार्य विद्यानन्दि स्वामी द्वारा विवेचित अतिचारों पर प्रकाश डालते हैं, जिससे प्रत्येक श्रावक इनको दर करके निरतिचार व्रतों का पालन कर सके। १. अहिंसाणुव्रत के अतिचार इस व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं- आवागमन के लिये अभीष्ट देश में जीव को प्रतिबन्धित करना बन्ध है। जैसे- हथकड़ी, लेज, रस्सी, सांकल आदि बांधना बन्ध है। डण्डा, चाबुक, छड़ी आदि के द्वारा प्राणियों को ताड़ना वध है। जैसे- किसी जानवर को डंडा, चाबुक, लौदरी, बैल आदि से ताड़ना। कान, नाक, अण्डकोष आदि अवयवों को छेदना छेद है। न्यायोचित भार से अधिक बोझ लादना अतिभारारोपण है। उचित समय पर अथवा भूख-प्यास लगने पर खाद्य-पेय पदार्थों का निरोध कर देना, अन्नपान निरोध है।६