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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 आचार्य कुमुद्चन्द्र इस स्तोत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि मैंने इसे स्वयं की लोक-पूजा के लिए नहीं रचना, अपितु भक्ति में डूबकर रचा है, फिर भी कुछ भी भक्ति नहीं कर पायी। जो कुछ भी कर पाया हूँ उसका फल यही चाहता हूँ कि- "तुम होहु भव भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहूँ।" वे कहते हैं कि जब तक मोक्ष प्राप्त न हो, तब तक आपकी भक्ति से वंचित न रहूँ - भक्त्योल्लसत्पुलक पक्ष्मलदेहदेशाः, पादद्वयं तव विभो! भुवि जन्मभाजः॥३४॥ भक्ति के कारण जिनके शरीर का रोम-रोम उल्लसित व पुलकित है, वे धन्य हैं। आपके चरणकमलों की उपासना करने वाला मिथ्यात्व-मोह का अंधकार विदीर्ण कर स्वयं आप जैसा आलोक पुरुष बन जाता है। निदेशक वीर सेवा मन्दिर (शोध संस्थान) २१, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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