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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार के आधार पर व्रतों के अतिचारों की समीक्षा
पं.आलोककुमारजैन
देव, गुरु, संघ, आत्मा आदि की साक्षीपूर्वक जो हिंसादि पापों का परित्याग किया जाता है, उसे व्रत कहते हैं। पाँचों पापों का यदि एकदेश, आंशिक या स्थूल त्याग किया जाता है, तो उसे अणुव्रत कहते हैं और यदि सर्वदेश त्याग किया जाता है, तो उसे महाव्रत कहते हैं। पाप पांच होते हैं, अतः उनके त्याग रूप अणुव्रत और महाव्रत भी पांच-पांच हैं। इस व्यवस्था के अनुसार महाव्रतों के धारक मुनि और अणुव्रतों के धारक श्रावक कहलाते हैं। पांचों अणुव्रत श्रावक के शेष व्रतों के और पांचों महाव्रत मुनियों के शेष व्रतों के, मूल आधार हैं, अतएव उन्हें मूलव्रत या मूलगुण भी कहा जाता है। मूलव्रतों की रक्षा के लिये जो अन्य व्रतादि धारण किये जाते हैं, उन्हें उत्तरगुण कहा जाता है। इसके अनुसार मूल में श्रावक के पांच मूलगुण और सात उत्तरगुण निर्दिष्ट किये गये हैं। कुछ आचार्यों ने उत्तर गुणों को 'शीलवत' की संज्ञा भी दी है। कालान्तर में श्रावक के मूलगुणों की संख्या पांच से बढकर ८ हो गई। अर्थात् ५ अणुव्रतों के साथ तीन मकारों (मद्य, मांस, मधु) के सेवन का त्याग करना अष्टमूलगुण कहलाने लगे। कुछ समय उपरान्त पांच पापों का स्थान पांच उदुम्बर फलों ने ले लिया और नये अष्टमूलगुण माने जाने लगे जो वर्तमान में भी अधिकतर माने जाते हैं।
इस प्रकार पांचों अणुव्रतों की गणना उत्तरगुणों में होने लगी और सात के स्थान पर बारह उत्तर गुण अथवा बारह व्रत श्रावक के हो गये। किन्तु यह परिवर्तन श्वेताम्बर परम्परा में दृष्टिगोचर नहीं होता है। साधुओं के पाँचों पापों का सर्वथा त्याग नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय और कृतकारित अनुमोदना से होता है। अतएव उनके व्रतों में किसी भी प्रकार दोष लगने का अवसर/स्थान नहीं होता है। परन्तु श्रावकों के प्रथम तो सभी पापों का सर्वथा त्याग संभव नहीं है, दूसरे प्रत्येक व्यक्ति नवकोटि से स्थूल पापों का भी त्याग नहीं कर सकता। तीसरे प्रत्येक व्यक्ति के आस-पास का वातावरण एक समान नहीं रहता है। इन सब बाह्य कारणों से और प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन और नोकषायों के तीव्र उदय से उसके व्रतों में कुछ न कुछ दोष लगता रहता है। अतएव व्रत की भावना रखते हुए भी प्रमादादि तथा बाह्य परिस्थिति-जनित कारणों से गृहीत व्रतों में दोष लगने का, व्रत के आंशिक रूप से खण्डित होने का और स्वीकृत व्रत की मर्यादा के उल्लंघन का नाम ही शास्त्रकारों ने "अतिचार" रखा है। जैसाकि पं. आशाधर जी लिखते हैं- "सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोउंश भंजनम्"।
जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय का तीव्र उदय होता है, तो व्रत जड़ से खण्डित हो जाता है. उसके लिये आचार्यों ने 'अनाचार' कहा है। कल्पना करें कि किसी व्रत के लिये १०० अंक