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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
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आचार्य कुमुद्चन्द्र की आत्मशक्ति का प्रखर तेज, उज्जयिनी के नरेश विक्रमादित्य को अभिभूत कर गया और राजा ने आपको राजदरबार के ऐतिहासिक नवरत्नों मं 'क्षपणक' नामक उज्जवल रत्न के रूप में अभिभूषित किया।
एक बार ओंकारेश्वर के विशाल प्रांगण में हजारों की संख्या में शैव और शाक्त बैठे हुए थे, जिन्हें अपने वैदिक यौगिक चमत्कारों पर बड़ा गर्व था। वे सभी यह देखना चाहते थे कि इस क्षपणक में ऐसा कौन सा चमत्कार है, जिससे वह राजदरबार का रत्न बन बैठा। नरेश भी परीक्षा-प्रधानी था। राजाज्ञा पाकर कुमुदचन्द्र शिवपिण्डी को नमस्कार करने आगे बढ़े। वे ज्यों-ज्यों बढ़ रहे थे, चित्तौड़गढ़ का वह भव्य जिनालय, भगवान् पार्श्वनाथ की सौम्यमूर्ति और वही स्तम्भ में रखा ग्रन्थ देख रहे थे। कुछ ही क्षणों में वही स्तम्भ और ग्रन्थ का चमत्कारी पृष्ठ उस शिवमूर्ति के स्थान पर दिखाई देने लगा और एकाएक उनके मुँह से भक्ति के उन्मेष में यह श्लोक निकलने लगा
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं,
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥ इस अद्भुत श्लोक को सुनकर जनमानस मंत्रगुग्ध हो गया। समस्त जनमेदिनी उस अलौकिक पुरुष को निहार रही थी, जिसके प्रभाव से संपूर्ण परिवेश वीतरागी अध्यात्म छटा से परिपूर्ण बन गया था। विक्रमादित्य सहित उपस्थित जनता धन्य-धन्य कहती हुई जैनधर्म की अनुयायी हो गई। उन्हीं विक्रमादित्य की प्रेरणा से कुमुदचन्द्राचार्य ने भक्तिरस के इस चमत्कारी स्तोत्र की रचना की। कवि ने भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति में डूबकर लोकोत्तर उपमाओं और कल्पनाओं द्वारा मानवकल्याण के लिए एक ऐसी सीढ़ी निर्मित कर दी, जिस पर से हमारी आत्मिक अपूर्णता, उस अनंत सम्पूर्णता को संस्पर्शित करने लगती है, जो आत्मविकास के लिए अपरिहार्य है। (कथानक- पं. कमल कुमार/ प्रकाशक मोहनलाल शास्त्री, जबलपुर से साभार उद्धृत)।
कल्याण मन्दिर स्तोत्र में भक्ति तत्त्व का उत्कर्ष सामान्य जन संसार के दुःखों से परितप्त है। वह भगवान् पार्श्वप्रभु के परम-कारुणिक और इन्द्रियविजेता होने के कारण सामर्थ्यवान् मानता है। अस्तु ! भक्तजन अपने अज्ञान का नाश करने व दुःखों को दूर करने के लिए प्रार्थना करता है।
"भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय,
दुखांकुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि।" (३९) वीतराग की भक्ति से आत्मा पवित्र बनती है, पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन होता है और पाप प्रकृतियों का हास होता है। जिस प्रकार चन्दन के वन में मयूर के पहुँचते ही वृक्षों से लिपटे सर्प तत्काल अलग हो जाते हैं। उसी प्रकार भक्त के हृदय में आपके विराजमान होते ही संलिष्ट अष्ट कर्मों के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं।