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कल्याणमन्दिर स्तोत्र : एक अनुशीलन
प्राचार्यपं.निहालचंदजैन
भक्ति और ज्ञान- दोनों का लक्ष्य है- 'प्रसुप्त चेतना का जागरण'। आत्मा की चैतन्य धारा, सांसारिक भंवर में, फंसने से मैली बनी हुई है। चेतना की अधोगति है संसार की ओर अभिमुखता और ऊर्ध्वगति है मुक्तिसोपान की ओर बढ़ना। 'अर्हद्भक्ति', अधोगति को मिटाकर आत्मा की विशुद्धि को बढ़ाती है। स्तोत्रकाव्य, अर्हद्भक्ति, के उत्कृष्ट नमूने हैं। भक्ति-परक स्तोत्र अनेक हैं। आचार्य मानतग का भक्तामरस्तोत्र, श्री समन्तभद्र स्वमी का बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, कुमुदचन्द्राचार्य का कल्याणमन्दिर स्तोत्र, वादिराजसूरि का एकीभाव स्तोत्र और धनञ्जय महाकवि का विषापहारस्तोत्र। इन स्तोत्रों के साथ कोई सृजन-कथा जुड़ी हुई है। चमत्कार या अतिशय का घटित होना स्तोत्र का नैसर्गिक प्रभाव कहें या उनमें समाहित/ गुम्फित मन्त्रों की शब्द-शक्ति। शब्द-शक्ति की अभिव्यंजना से अनुस्यूत स्तोत्र तन्मयता और भाव-प्रवणता के अचूक उदाहरण हैं। उनकी ज्ञेयता में भी भक्ति का उन्मेष और उत्कर्ष है।
कल्याणमंदिर स्तोत्र का रचनाकाल विक्रम सं.६२५ माना गया है। अनुश्रुति के आधार पर आचार्य कुमुदचन्द्र पर कोई विपत्ति आई हुई थी। कहा जाता है कि उज्जयिनी मं वादविवाद में इसके प्रभाव से एक अन्य देव की मूर्ति में श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गयी थी। इस स्तोत्र में भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है, अस्तु इसका नाम 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' भी है। इसकी अपूर्व महिमा है। इसका पाठ या जाप करने से समस्त विघ्न बाधायें दूर होती हैं और सुखशांति प्राप्त होती है। जिनशासन का प्रभाव या चमत्कार दिखाने के लिए प्रायः ऐसे भक्ति स्तोत्रों का उद्गम हुआ है। जैसे स्वयम्भू स्तोत्र की रचना के पीछे जो घटना जड़ी है, वह है कि समन्तभद्र स्वामी को शिवपिण्डी को नमस्कार करने के लिए बाध्य किया गया और वह पिण्डी अचानक फटी और भगवान् चन्द्रप्रभु की प्रतिमा अनावरित हो गयी। आचार्य मानतुंग भक्तामर स्तोत्र के पदों की रचना करते हुए भक्ति में डूबते गये और ४८ ताले अनायास खुलते गये। धनञ्जय कवि के विषापहार स्तोत्र के प्रभाव से उसके पुत्र को विष का परिहार हुआ। इसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ, जो संकटहरणदेव के रूप में लोकमानस में प्रतिष्ठित हैं, का स्तवन करने से आचार्य कुमुदचन्द्र का उपसर्ग दूर हुआ था। इस स्तोत्र की मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में भक्तामर स्तोत्र की भांति है। जहाँ श्वेताम्बर इसे अपने गुरु सिद्धसेन दिवाकर की रचना मानते हैं, वहीं दिगम्बर, स्तोत्र में आये- “जननयनकुमुद्चन्द्रप्रभास्वराः" से आचार्य कुमुद्चन्द्र की रचना मानते हैं।
यह दिगम्बर आचार्य प्रणीत रचना है, इसके दो ठोस प्रमाण अधोलिखित हैं - (१) स्तोत्र के ३१ में पद्य से लेकर ३३वें पद्य तक भगवान पार्श्वनाथ पर दैत्य कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों का वर्णन है, जो श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिकूल है, क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में भगवान् पार्श्वनाथ के स्थान पर भगवान् महावीर को सोपसर्ग माना है, जबकि दिगम्बर परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ को सोपसर्ग माना है, भगवान महावीर को नहीं।