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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
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महापुराण और भूधरदास (१७वीं शती) के पार्श्वपुराण में संगीत का अच्छा चित्रांकन है। आचार्य पार्श्वदेव का 'संगीत समयसार' एक उच्चकोटि का ग्रन्थ है।
भरतेश वैभव (२/७७) में, चक्रवर्ती भरत की राजसभा में संगीत विशारदों द्वारा जो विविध रागों में गायन प्रस्तुत किये गये, उनका वर्णन आया है।
भूपालयिंद धन्वासियिंद सर्व। भूपालि गोडेयन मुंदे।
श्री पुरुनाथ पाडिदरेल्लर। पापलेपव नैदुवंते॥ अर्थात् संगीत विशारदों ने भूपाली तथा धन्वासी राग में, राज समूह अधियति भरत चक्रवर्ती के सन्मुख श्री वृषभदेव तीर्थकर की स्तुति करते हुए, इस प्रकार गायन किया कि जिसे सुनकर सब श्रोताओं के पाप नष्ट हो जाएँ। __ संगीतोपनिषद् सारोद्धार में बतलाया है कि तूर्य वाद्य और नाटक की उत्पत्ति, चक्रवर्ती भरत की नौ निधियों में से अन्तिम निधि शंख से हुई थी, और संगीत की निष्पत्ति 'हर' से हुई। यहाँ 'हर' का आशय ऋषभदेव से है जो ऋषभदेव के नामान्तर-सहस्रनाम में आया है।
शिवः शिवपदाध्यासात् दुरितारि हरो हरः।
शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्वं भवन्मुखे॥ सहस्रनाम॥ आचार्य जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण में लिखा है कि ऋषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसैन को गीत,वाद्य तथा गान्धर्व विद्या की शिक्षा दी,जिस शास्त्र के सौ अध्याय से ऊपर हैं।
विभुर्वृषभसेनाय गीतवाद्यार्थ संग्रहम्। गन्धर्व शास्त्र माचख्यौ, यत्राध्यायाः परः शतम्॥
(आदिपुराण - १६/१२०) संगीत के सन्दर्भ में यह सूत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण है :"श्रोत्रनेत्र महोत्सवाय” अर्थात् संगीत श्रोत (कर्ण) एवं नेत्र (आँखों) के लिए उत्सवकारक है।
श्री वृषभदेव पुराण में - नीलांजना के नृत्य का प्रसंग - कविताबद्ध किया है, जो महाराजा वृषभदेव की राजसभा में सम्पन्न हुआ था। पंचकल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत दीक्षा दिवस के दिन महाराजा वृषभदेव की राजसभा लगती है और सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से महाराज वृषभदेव को वैराग्य उत्पन्न करवाने का निमित्त भूत, इन्द्र, सुरनर्तकी नीलांजना का मनमोहक नृत्य करवाते हैं- जो प्राणार्पण नृत्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें नीलांजना नृत्य करते हुए आकस्मिक रूप से मरण को प्राप्त हो जाती है, जिसे देखकर वृषभदेव को वैराग्य उत्पन्न होता है। इस प्राणार्पण नृत्य का पद निम्नानुसार है -
नीलंयशा नाम एक, देवी मघवा पाठाय, आयु जाकी अंतर महूरत प्रमानिये। गावत सुकंठ गीत, नाचत संगीत ताल, बाजत मृदंग वीन, बांसुरी बखानिये।
नटति नटति आयु पूरी खिर गई देह, देखि जिननाथ जग नाशवान जानिये। राजकाज त्याग कीजे, आत्मीक रस पीजे,दीजे दुख लीजे सुख, मोह कर्म भानिये।
- श्री वृषभदेवपुराण॥