________________
अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
माधुर्यवाद्यलय नृत्य विलासिनीनाम्,
लीलाचलद् वलय नूपुर नाद रम्यम्॥ दृष्टाष्टक-५॥ मैंने (भक्त ने) जिनेन्द्र भगवान का मंदिर देखा, जहाँ मनोहर वाद्य बज रहे हैं, और वाद्यों की लय पर, बालों में मालायें धारण करने वाली स्त्रियाँ भक्तिपूर्वक नृत्य कर रही हैं। उनके नृत्य के कारण, उनके वलय और नूपुरों की मधुर ध्वनि से जिनालय झंकृत हो रहा है। महापुराण में आचार्य जिनसेनस्वामी लिखते हैं -
जैनालयेषु संगीत पटहाम्भोद निस्स्वैनः। यत्र नृत्यन्त्य कालेऽपि शिखिनः प्रोन्मदिण्णवः। (४/७७) अर्थात् जैन मंदिर में संगीत के समय जो तबले बजते हैं, उनके शब्दों को मेघ का शब्द समझकर हर्षोन्मुक्त हुए मयूर असमय में ही, ऋतु के बिना ही नृत्य करने लगते हैं।
यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यद् दीक्षाग्रहणोत्सवे, यदाखिलज्ञान प्रकाशोत्सवे।
यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपतेः पूजाद् भुवं तद्भवैः, संगीत स्तुति मंगलै प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सवः।। - सुप्रभात स्तोत्र।। तीर्थकरों के स्वर्ग से अवतरण- उत्सव (गर्भकल्याणक) के समय, जन्माभिषेक उत्सव, दीक्षा ग्रहण पर, केवलज्ञान प्राप्ति उत्सव में एवं निर्वाणोत्सव में जिन संगीत युक्त स्तुतियों से अलौकिक पूजा की गयी थी, वे मेरे लिए प्रभात को उत्सव रूप करें। यद्यपि जिनेन्द्र प्रभु वीतरागी व राग-द्वेष से पर हैं, फिर भी जन गणशुद्ध शुद्धराग व शुद्ध संगीत मय पवित्र भावना से गाता है, वह परम्परा से मोक्षगामी होता है। देखें-संगीतोपनिषद् सारोद्धार-३/२ में -
यो वीतरागस्य परात्मनोऽपि, गुणानुबद्धं गणराग शुद्धम्। पुण्यैक लोभात् परया च भक्त्या, गायेत संगीत स तु मुक्तिगामी॥ इसी ग्रंथ में एक और प्रसंग आया है जिसका सार-सारांश इस प्रकार है। तीर्थकर के समवशरण सभा में, स्पर्धा पूर्वक सम्मलित स्वर्ग की अप्सराओं ने तत, धन, सुबिर और आनद्ध (अर्थात क्रमशः वीणा, काँस्य, वंशी और मरज) इन चार वाद्यों के साथ किये गये नत्य में उपस्थित जन समूह को प्रसन्न किया। किन्तु इस ललित नृत्य से भी अधिक सुखकर तीर्थकर की दिव्यध्वनि है, जिसे सुनकर सर्वोत्तम आनंद की प्राप्ति होती है।
जैन संस्कृति और संगीत जैन संस्कृति और वाङ्गमय में संगीत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन संस्कृति के मूल स्तम्भ हैं मंदिर और चैत्य, जो संगीत के मूलाधार हैं। स्तुति स्तोत्र, पूजा-अर्चा, प्रतिष्ठा-कल्याणक, रथोत्सव, दशलाक्षणी पर्व आदि कोई भी महोत्सव हो, संगीत का आयोजन अनिवार्य रूप से होता है। जैन रास और जैन- नृत्य संगीत के बिना चलते ही न थे। जैन पुराण साहित्य से स्पष्ट है कि तीर्थकरों के गर्भ, जन्मोत्सव- इन्द्र और देवियों के नृत्य, वादित्र और गायन से ही संपन्न होते थे। संगीत के सैद्धान्तिक पक्ष पर जैनाचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है। भगवज्ज्निसेनाचार्य (९वीं शती) के