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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 ___अर्थात् अनेक कष्टों भरे हुए अतिनिन्दित गृहवास में बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी प्रमाद को पराजित करने में समर्थ नहीं है। इस कारण गृहस्थावस्था में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है। इसी प्रकार यति हो जाने पर भी मिथ्यादृष्टियों को ध्यान की सिद्धि नहीं होती है - 'ध्यानसिद्धिर्यतित्वेऽपि न स्यात्पाषण्डिनां क्वचित्। उक्त दोनों कथनों की आचार्यश्री ने अनेक दृष्टान्तों/ तर्को के साथ सिद्धि की है। ध्येय विषय का विवेचन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र स्पष्ट करते हैं कि निर्मल वस्तु ध्येय है, अवस्तु ध्येय नहीं है। ध्येय दो प्रकार का है-चेतन और अचेतन। चेतन तो जीव है और अचेतन पञ्च द्रव्य है। ये सर्वथा नित्य या अनित्य नहीं हैं। इनमें मूर्तिक भी हैं और अमूर्तिक भी हैं। चैतन्य ध्येय सकल एवं निकल परमात्मा अर्थात् अरहन्त भगवान् एवं सिद्ध भगवान् हैं। वे लिखते हैं - _ 'शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वरः। सर्वज्ञः सकलः शिवः स भगवान् सिद्धः परो निष्कलः॥" जो चेतन या अचेतन जिस रूप में अवस्थित है, उसका वही रूप ध्येय है। कहा भी है __'अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्षणलाञ्छिताः। तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे मनीषिभिः॥" ध्यान का फल दो प्रकार कहा गया है - लौकिक और पारमार्थिक। लौकिक फल वाले सभी ध्यान अप्रशस्त कहे गये हैं, अतः वे कुध्यान हैं। तत्त्वानुशासन में तो स्पष्टतया कहा गया है कि लौकिक फल को चाहने वालों को जो ध्यान होता है, वह या तो आर्तध्यान या रौद्रध्यान।' ये दोनों ही ध्यान अप्रशस्त होते हैं। यहाँ यह अवधेय है कि अन्य परम्परा में ध्यान की सिद्धि के लिए जो अष्टांग योग का विवेचन किया गया है अथवा यम, नियम को छोड़कर आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन छह अंगों का विवेचन किया गया है, वह मन की स्थिरता और शुद्धता के लिए है। इनका जानना भी योग्य है। कहा भी गया है - 'अंगान्यष्टावपि प्रायः प्रयोजनवशात्क्वचित्। उक्तान्यत्रैव तान्युच्चैर्विदान्कुर्वन्तु योगिनः॥" ध्यान और भावना ध्यान एवं भावना का सूक्ष्म अन्तर स्पष्ट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं - 'एकाचिन्तानिरोधो यस्तद्ध्यानं भावना परा। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते॥" अर्थात् जो एक विषय या ज्ञेय में चित्त ठहरा हुआ है, वह तो ध्यान है और इससे भिन्न है सो भावना है। इसे ध्यान के जानकारों ने अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता कहा है। ध्यान और ज्ञान यद्यपि ध्यान ज्ञान की ही पर्याय है तथापि ध्यान में अन्तःकरण के संकोच के कारण कथंचित् भिन्नता भी कही गई है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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