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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 ध्यान के भेद सामान्यतया ध्यान के दो भेद किये जाते हैं - प्रशस्त ध्यान और अप्रशस्त ध्यान। ज्ञानार्णव में जीव के आशय के आधार पर ध्यान के तीन भेद किये हैं - प्रशस्त ध्यान, अप्रशस्त ध्यान और शुद्ध ध्यान। पुण्य रूप आशय के वश से तथा शुद्ध लेश्या के अवलंबन से और वस्तु के यथार्थ स्वरूप के चिन्तन से जो ध्यान उत्पन्न होता है, वह प्रशस्त कहलाता है। जीवों के पाप रूप आशय के वश से तथा मोह, मिथ्यात्व, कषाय एवं तत्त्वों के अयथार्थ चिन्तन से जो ध्यान उत्पन्न होता है, वह अप्रशस्त कहलाता है। रागादि की सन्तान के क्षीण होने पर अन्तरंग आत्मा के प्रसन्न होने से जो अपने स्वरूप की प्राप्ति होती है, उसे शुद्ध ध्यान कहते हैं। शभ ध्यान के फल से मनुष्य को स्वर्ग एवं क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अशभ ध्यान या दान से दुर्गति की प्राप्ति होती है तथा प्रयासपूर्वक भी अशुभ कर्म का क्षय नहीं होता है। शुद्ध ध्यान से जीवों को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।१३ वास्तव में प्रशस्त ध्यान पुण्यबन्ध, अप्रशस्त ध्यान पापबन्ध तथा शुद्धध्यान मोक्षप्राप्ति का कारण है। श्री शुभचन्द्राचार्य ने अन्यत्र ध्यान के प्रशस्त एवं अप्रशस्त दो भेद भी किये हैं। वे कहते है कि ये इष्ट एवं अनिष्टफल की प्राप्ति के कारण भूत हैं। जिस ध्यान में मुनि वीतराग होकर वस्तु स्वरूप का चिन्तन करे वह ध्यान प्रशस्त एवं मोही जीव वस्तु का अयथार्थ चिन्तन करे वह ध्यान अप्रशस्त है। अप्रशस्त ध्यान जीवों के अनादि वासनाजन्य है तथा उपदेश के बिना स्वयमेव होता है। अप्रशस्तध्यान आर्त एवं रौद के भेद से दो प्रकार का तथा प्रशस्त ध्यान धर्म एवं शुक्ल के भेद से दो प्रकार का होता है। इनमें आर्त एवं रौद नामक अप्रशस्त ध्यान अत्यन्त दुःखदायी हैं तथा धर्म एवं शुक्ल नामक प्रशस्त ध्यान कर्मों का नाश करने में समर्थ है।१४ तत्त्वार्थसूत्र में "आर्तरौदधय॑शुक्लानि'१५ कहकर आर्त, रौद, धर्म, शुक्ल ध्यानों का विवेचन किया गया है, वे अप्रशस्त एवं प्रशस्त दो ध्यानों में अन्तर्भूत हैं। १. आर्त ध्यान - आर्त शब्द की निरुक्ति करते हुए आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि 'ऋतं दुःखम् अर्दनमर्तिर्वा तत्र भवमार्तम्। अर्थात् आर्त शब्द ऋत अथवा अर्ति से बना है। इनका अर्थ दुःख है। इनमें जो होता है, वह आर्तध्यान है। संसारी जीव के हर समय कलषित परिणाम रहते हैं। आर्तध्यान का विवेचन करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है - 'ऋते भवमथार्त्त स्याद् असद्ध्यानं शरीरिणाम्। द्वदिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात्॥ ऋत अर्थात पीडा में जो उत्पन्न होता है, वह आर्तध्यान है, यह अप्रशस्त है। जैसे किसी प्राणी के दिशाओं के भूल जाने से उन्मत्तता होती है, यह ध्यान उसके समान है। यह ध्यान अविद्या की वासना से उत्पन्न होता है। आर्तध्यान के भेद आर्तध्यान चार प्रकार का होता है - अनिष्टसंयोगज, इष्टवियोगज, रोगप्रकोपज या वेदनाजन्य और निदानजन्य।१८ इनका स्वरूप नाम से ही स्पष्ट है। मनुष्यों के इष्ट भोगादिक की सिद्धि के लिए तथा शत्रु के घात के लिए अथवा उच्च पद की प्राप्ति के लिए जो वांछा है या पूजा-प्रतिष्ठा की याचना के लिए जो चिन्तन है, वह निदानजन्य आर्तध्यान है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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