________________
अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
सातकर्णी राजा को हराने के बाद खारवेल की सेना कलिंग न लौटकर दक्षिण में कृष्णा नदी के तट पर बसे हुए अशिक नगर पर जा पहुंची। पुराण के अनुसार उस समय कृष्णा नदी के जो राजा थे, वे बड़े ही पराक्रमी और शूरवीर थे, फिर भी उनकी शक्ति खारवेल का मुकाबला करने से हार गई। अशिक राज्य पर आधिपत्य जमा खारवेल सैन्य सहित एक वर्ष तक वहीं रहा, बाद में लौटा।
खारवेल तीसरे वर्ष कहीं नहीं गया। इस वर्ष उसने राजधानी में आनन्दोत्सव मनाए। चौथे वर्ष अरकडपुर में जो विद्याधरों के वास थे, उन पर अधिकार कर रथिक और भोजक लोगों पर आक्रमण शुरू किया। इन सभी को परास्त कर उसने अपने आधीन कर लिए। पांचवें वर्ष में उसने तनसुलिय - वाट - नहर को बढ़ाया। इसे नन्दराज ने बनवाया था। छठे वर्ष पौर और जानपदों को उसने विशेष अधिकार प्रदान किए। सातवें वर्ष उसका विवाह धूमधाम से हुआ। आठवें वर्ष उसने मगध पर आक्रमण किए और ससैन्य गोरथगिरि (बराबर की पहाड़ियाँ) तक पहुंच गए। उसके शौर्य की गाथा सुन यवनराज देमित्रियस मथुरा छोड़कर भाग गया।
राजधानी को लौटकर खारवेल ने अपने राजत्वकाल के ९वें वर्ष में महान् उत्सव व दानपुण्य किया। उन्होंने सभी को किमिच्छिक दान दिया। योद्धाओं को घोड़े, हाथी, रथ भेंट किए और प्राची नदी के दोनों तटों पर विजयप्रासाद बनवाकर अपनी दिग्विजय को स्थायी बना दिया। दसवें वर्ष में अपनी सेना को उसने पुनः उत्तर की ओर भेजा एवं ग्यारहवें वर्ष उसने मगध पर आक्रमण किया। यह आक्रमण अशोक के कलिंग आक्रमण के प्रतिशोध में था। मगधनरेश बहस्पतिमित्र खारवेल के पैरों में नतमस्तक हुए। उन्होंने अंग और मगध की मूल्यवान भेंट लेकर राजधानी को प्रयाण किया। इस भेंट में कलिंग के राजचिन्ह और कलिंग जिन (भगवान् ऋषभदेव) की प्राचीन मूर्ति भी थी, जिसे नन्दराज मगध ले गया था। खारवेल ने उस अतिशय पूर्ण मूर्ति को कलिंग वापस लाकर बड़े उत्सव से विराजमान किया। उस घटना की स्मृति में उन्होंने विजयस्तम्भ भी बनावाया। इसी वर्ष दक्षिण के पाण्ड्यनरेश ने खारवेल का सत्कार किया और बहुमूल्य भेंट दी। बारहवें वर्ष उत्तर और दक्षिण के बड़े-बड़े नरेशों को परास्त कर वे कलिंग चक्रवर्ती सिद्ध होते हैं।
१३वें वर्ष में खारवेल राज्यलिप्सा से विरक्त हो धर्मसाधना की ओर झुकते हैं। कुमारी पर्वत पर जहां भगवान् महावीर ने धर्मोपदेश दिया था, वहां जिनमन्दिर बनवाते हैं और अर्हन्त निषधिका का उद्धार करते हैं। वे एक श्रावक के व्रतों का पालन कर आत्मोन्नति में लग जाते हैं।
खारवेल के समय का राष्ट्र जैनधर्म था। जैन साधुओं के लिए खारवेल ने अनेक गुफा बनवाई थीं। उन्होंने णमोकार मंत्र के दो पद - “नमो अरहंतानं, नमो सव्वसिधानं" अपने९ शिलालेख के प्रारंभ में लिखाए थे। उसने लेख के साथ स्वस्तिक आदि जैन मांगलिक चिन्ह भी खुदवाए थे। उसके शिलालेखों में बौद्ध और आजीविकों का उल्लेख नहीं है। इससे यह द्योतित होता है कि कलिंग में ब्राह्मण और जैन दो ही प्रधान धर्म थे। उनके शासन में जैनधर्म कलिंग में उन्नति के शिखर पर पहुंचा। वे कर्मशूर होने के साथ साथ धर्मशर थे। खारवेल जन्म से जैन थे। उन्होंने अशोक की तरह अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया था। उनकी उपाधि खेमराजा (क्षमाशील राजा), भिक्षुराजा, धर्मराजा, वर्द्धमानराजा आदि थे। भिक्षु राजा उपाधि से यह द्योतित होता है कि उन्होंने मुनिव्रत भी धारण किए थे। खण्डगिरि की बारह गफा में चौबीस तीर्थकरों की मर्तियों के अतिरिक्त पश्चिमी दीवाल के कोने में उनकी मूर्ति दिगम्बर वेष में विद्यमान है, कमण्डलु नीचे रखा है, हाथ में पिच्छि लिए ध्यानमुद्रा में खड़े हैं। इससे द्योतित होता है कि जैनधर्म के संरक्षण और सम्प्रसारण में उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था।