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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
जैनधर्म ने कलिंग के निवासियों को बहुत प्रभावित किया है। यहाँ एक महिमा धर्म का उदय हुआ था। महिमा धर्म के अनुयायी साधु खण्डगिरि के आसपास आश्रम बनाकर रहते हैं। वे जैन क्षुल्लकों की तह गेरुआ रंग की एक कौपीन और एक उतरीय धारणा करते हैं। वे रात्रि भोजन नहीं करते हैं और पूर्णतया शाकाहारी हैं और दयाधर्म को पालते हैं।" आर. पी महापात्र ने Jain Monuments पृ. ४० में कहा है - "No parking of food after sunset and their practice of burning the deadbody shows the influence of Digambar Jains."
उड़ीसा में प्रारम्भ से ही जैनों का निवास था। सराक जाति प्राचीन जैनों का ही अवशेष है। संभवतः शुङ्गकाल में ये शहर छोड़कर गांव और जंगल में रहने को विवश हुए हों।
जगन्नाथ जी की रथयात्रा जैनों की रथयात्रा का अनुकरण है। नाथ सम्प्रदाय का अस्तित्व भी तीर्थकरों की विचारधारा के प्रभाव से उदय में आया। चनो मोहन गांगली ने कहा है कि उड़ीसा में जैनधर्म की जड़ें इतनी गहरी थीं कि हम उसके चिन्ह १६वीं सदी ई. तक पाते हैं। उड़ीसा का सूर्यवंशी राजा प्रतापरुद्रदेव जैनधर्म की ओर बहुत झुका हुआ था।
संदर्भ १. श्री सदानन्द अग्रवाल : खारवेल पृ.१ (भूमिका) प्रकाशक-श्री दि. जैन समाज,कटक,
महताब रोड, कटक, जनवरी १९९३ २. वही पृष्ठ ३ ३. खारवेल पृ. २३-२४ ४. जैन शिलालेख संग्रह - भाग-२, पृ.४ -११ ५. डॉ. लक्ष्मीनारायण साहू : उड़ीसा में जैनधर्म पृ. ४२ ६. M. N. Das : Glimpses of Kalinga History P.60 ७. N. K. Sahu - History of Orissa, vol.II, P.327 ८. उड़ीसा में जैन धर्म पृ. ५७ ९. उड़ीसा में जैनधर्म पृ.५५-५७ १०. प्रो. लालचन्द्र जैन : उड़ीसा में जैनधर्म पृ. ३१-३२ ११. वही, पृष्ठ-१३१ १२. उड़ीसा एण्ड हर रिमेन्स : एन्शिएण्ट एण्ड मेडिएवल, कलकत्ता १९१२
- द्वारा, मनोज खन्ना मु. जाटान, बिजनौर (उ.प्र.)