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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 मुनि आहार के समय विचार करते हैं कि१. आहार दाता का धन; जिससे आहार बना है वह न्यायोपार्जित होना चाहिए। प्रासुक द्रव्य होना चाहिए।" २. आहार दाता का धन, जिससे आहार बना है वह दाता का स्वयं का होना चाहिए। ३. आहार दाता का धन, जिससे आहार बना है वह कर्ज रूप में नहीं लिया गया हो। यहाँ तक कि भोज्य वस्तु भी उधार की नहीं हो। मूलाचार में इसे प्रामृष्य दोष के अर्न्तगत लिया है। मूलाचार के अनुसार डहरियरिणं तु भणियं पामिच्छं ओदणादिअण्णदरं। तं पुण दुविहं भणिदं सवढियमवड्ढियं चावि॥ अर्थात्- भात आदि कोई वस्तु कर्ज रूप में दूसरे के यहाँ से लाकर देना लघुऋण कहलाता है। इसके दो भेद हैं-ब्याज सहित और ब्याज रहित। आचार्य वसुनन्दि के अनुसार- लघु ऋण अर्थात् स्तोक ऋण। ओदन आदि भोजन तथा मण्डक-रोटी आदि अन्य वस्तुओं को प्रामृष्य कहते हैं। इस ऋण दोष के वृद्धि सहित और वृद्धि रहित की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। जब मुनि आहार के लिए आते हैं उस समय दाता श्रावक अन्य किसी के घर जाकर भक्ति से उससे भात आदि माँगता है और कहता है कि मैं आपको इससे अधिक भोजन दे दूंगा या इतना ही भोजन वापस दे दूंगा। ऐसा कहकर पुनः उसके यहाँ से लाकर यदि श्रावक मुनि को आहार देता है तो वह ऋण सहित प्रामृष्य दोष कहलाता है। इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पड़ता है अतः यह दोष है।" ४. आहार योग्य वस्तु में मिलावट नहीं होना चाहिए। मुनि को देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना अध्यधिदोष है। अप्रासुक और प्रासुक वस्तु का सहेतुक मिश्रण करना यह पूतिदोष है। अर्थशास्त्र भी मिलावट को स्वीकार नहीं करता। मुनि संयोजना और प्रमाणदोष से रहित आहार लेते है यह मिलावट से संबंधित दोष है। अर्थशास्त्र कहता है कि किसी को कष्ट देकर धन कमाना उचित नहीं। दिगम्बर मुनिराज भी आहार करते समय विचार करते हैं कि यह भोजन छह काय के जीवों की विराधना और मारण आदि से बनाया हुआ अपने निमित्त स्व या पर से किया गया जो आहार है वह अधःकर्मदोष से दूषित है। अतः मेरे योग्य नहीं है। ६. अर्थशास्त्र कहता है कि दूसरे के अधिकार की वस्तु पर स्वय अधिकार कर लेना उचित नहीं है। दिगम्बर मुनि भी दूसरे के लिए बनाये गये आहार को ग्रहण नहीं करते हैं। उसे औद्देशिक मान कर त्याग करते हैं ७. अर्थशास्त्र कहता है कि जो धन दूसरे के अधिकार का है उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं। दिगम्बर मुनि भी जिस दान का स्वामी दाता स्वयं नहीं होता है; ऐसा
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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