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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
आचार्य वसुनन्दि के अनुसार-बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की विमुक्ति, संगविमुक्ति है। अर्थात् श्रमण के अयोग्य सर्ववस्तु का त्याग करना और परिग्रह में आसक्ति का अभाव होना ही परिग्रह त्याग महाव्रत है।
सामायिक अवस्था में बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है। अचेलकत्व
मूलाचार में अचेलकत्व को मुनि का मूलगुण माना है। उसे परिभाषित करते हुए आचार्य श्री वट्टकेर ने लिखा है कि
वत्थाजिणवक्केणय अहवा पत्ताइणा असंवरणं।
णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं॥4 अर्थात् वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदिकों से शरीर को नहीं ढकना, भूषण अलंकार से और परिग्रह से रहित निग्रंथ वेष जगत में पूज्य अचेलकत्व नाम का मूलगुण है। जब मुनि दीक्षा होती है तो उसे अचेलकत्व स्वीकार करना होता है। मूलाचार में आचार्य वसुनंदि ने कहा कि-"आचेलक-चेलं वस्त्रं, उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन सर्वपरिग्रहःश्रामण्योयोग्यः चेलशब्देनोच्यते न विद्यते चेलं सस्यासावचेलकः अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्रभरणादि परित्यागः। अर्थात् चेल यह शब्द उपलक्षण मात्र है, इससे श्रमण अवस्था के अयोग्य सम्पूर्ण परिग्रह को चेल शब्द से कहा गया है। नहीं है चेल जिनके, वे अचेलक हैं, अचेलक का भाव अचेलकत्व है अर्थात् सम्पूर्ण वस्त्र आभरण आदि का परित्याग करना आचेलक्य व्रत है।
आचेलक्य व्रत के मूल में अर्थ और अर्थ के उपजीव्य पदार्थों का त्याग प्रमुख है। अर्थात् अर्थ के विसर्जन से ही मुनित्व के सर्जन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। स्थिति भोजन :- मूलाचार के अनुसार -
अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ विवज्जणेण समपाय।
___ पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम।। अर्थात् दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव-जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजली बनाकर भोजन करना स्थिति भोजन नाम का व्रत है।
ऊपर देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्थिति भोजन नामक मूलगुण का अर्थ या अर्थशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। किन्तु ऐसा है नहीं। क्योंकि साधु (मुनि) भोजन करने से पहले भोजन के मूल में गर्भित अर्थ के विषय में विचार करता है। मुनि भोज्य वस्तु के उद्गम, उत्पादन, अशन (भोग), संयोजना (मिलावट), प्रमाण (सही मात्रा का अभाव) आदि दोषों से रहित आहार करता है। इन सभी का संबंध अर्थशास्त्र से है। अर्थशास्त्र भी वस्तु के उद्गम, उत्पादन, भोग, वस्तु के क्रय-विक्रय में सही-सही मात्रा का निर्धारण आदि देखता है और इनसे संतुष्ट होने पर ही वह अपने अर्थशास्त्र का कार्य सम्पन्न होना मानता है।