SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 (१) अचौर्य महाव्रत (२) परिग्रहत्याग महाव्रत (३) अचेलकत्व (नाग्न्य व्रत) (४) स्थिति भोजन (आहारचर्या) अचौर्य महाव्रत- अदत्त का वर्जन करना अचौर्यव्रत है। चूंकि अदत्त का ग्रहण चोरी है, ऐसा सूत्रकार का कथन है। आचार्य श्री वट्टकेर के अनुसार गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहुदिं परेण संगहिदं। णादाणं परदव्वं अदत्तपरिवज्जणं तं तु॥ अर्थात् ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संगृहीत है ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना सो अदत्त परित्याग (अचौर्य) नाम का महाव्रत है। तात्पर्य यह है कि गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई और बिना पूछे ग्रहण की हुई वस्तु अदत्त शब्द से कही जाती है। ऐसी अदत्त वस्तुओं का ग्रहण अदत्तादान है और इनका त्याग करना अचौर्य व्रत कहलाता है। परिग्रह त्याग महाव्रत परिग्रह के मूल में विशेष रूप से अर्थ की भूमिका होती है। जब दिगम्बर मुनि पद धारण किया जाता है तब परिग्रह त्याग की अनिवार्य शर्त होती है। मूलाचार में परिग्रहत्याग महाव्रत का स्वरूप इस प्रकार बताया है जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीव संभवा चेल। तेसिं सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो॥ अर्थात् जीव से सम्बन्धित, जीव से असम्बन्धित और जीव से उत्पन्न हुए; ऐसे ये तीन प्रकार के परिग्रह हैं। इनका शक्ति से त्याग करना और इतर परिग्रह में (शरीर, उपकरण आदि में) निर्मम होना यह असंग अर्थात् अपरिग्रह नाम का पाँचवा व्रत है। इसकी आचार्यवृत्ति में आचार्य वसुनन्दि ने लिखा है कि- मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अथवा दासी, दास, गो, अश्व आदि ये जीवन से निबद्ध अर्थात् जीव के आश्रित परिग्रह हैं। जीव से पृथग्भूत क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि जीव से अप्रतिबद्ध, जीव से अनाश्रित, परिग्रह हैं। जीवों से उत्पत्ति है जिनकी ऐसे मोती, शंख, सीप, चर्म, दाँत, कम्बल आदि अथवा श्रमणपने के अयोग्य क्रोध आदि परिग्रह जीवसम्भव कहलाते हैं। सब तरफ से ग्रहण करने रूप मूर्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं। इन सभी प्रकार के परिग्रहों का शक्तिपूर्वक त्याग करना, सर्वात्मस्वरूप से इनकी अभिलाषा नहीं करना अर्थात् सर्वथा इनका परिहार करना, अथवा 'तेसिं संगच्चागो' ऐसा पाठान्तर होने से उसका यह अर्थ है-इन संग (परिग्रहों) का त्याग करना, और इतर अर्थात् संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण में ममत्व रहित होना यह असंगव्रत अर्थात् अपरिग्रहव्रत कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो जीव के आश्रित परिग्रह हैं, जो जीव से अनाश्रित क्षेत्र आदि परिग्रह हैं और जो जीव से संभव परिग्रह हैं उन सबका मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करना और इतर संयम आदि के उपकरणों में आसक्ति नहीं रखना, अति मूर्छा से रहित होना, इस प्रकार का यह परिग्रहत्याग महाव्रत है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy