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अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013
सब यह स्वीकार करेंगे कि मानव समाज के विज्ञानों में बल उनके प्रकाशदायक पक्ष पर उतना नहीं रहा जितना कि उनके फलदायक पक्ष पर यह 'फल' का आश्वासन है न कि 'प्रकाश' का जिस पर हमें अधिक ध्यान देना आवश्यक है।"
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प्रो. जे. के. मेहता एक नया विचार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मानव जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य परम आनन्द की प्राप्ति है वे सुख ( Pleasure ) दुःख (Pain) और परमानन्द ; भ्चचपदमेद्ध के बीच भेद करते हैं। उनके अनुसार “मानव मस्तिष्क असन्तुलन को नापसन्द करता है और इसलिए सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।...... असन्तुलन की दशा की अनुभूति दुःख कहलाती है, जबकि इस बात की अनुभूति कि असन्तुलन घट रहा है। अथवा सन्तुलन स्थापित हो रहा है, सुख कहलाती है। इस प्रकार सुख केवल दुःख का निवारण है।... आवश्यकता और दुःख दोनों का सह अस्तित्व होता है जब तक कोई अपूर्ण आवश्यकता उपस्थित रहती है, दुःख बना रहता है और इसके परित्याग या इसकी सन्तुष्टि की प्रक्रिया सुख प्रदान करती है। जैसे ही कोई आवश्यकता पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाती है या उसे छोड़ दिया जाता है, दुःख समाप्त हो जाता है, और साथ ही अधिक सुख प्राप्त करने की संभावना भी समाप्त हो जाती है। इस दशा में मानसिक स्थिति साम्य की स्थिति होती है, जिसमें न तो दुःख है और न सुख, बल्कि आनन्द होता है।"
यह तो सर्वविदित ही है कि जैनधर्म में चार पुरुषार्थ माने गये हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। तीर्थंकर पुरुषार्थ चतुष्टय के धारक होते हैं। 'मूलाचार की टीका में आचार्य श्री वसुनन्दि ने लिखा कि- "मूलगुणादिस्वरूपावगमनं प्रयोजनम् । ननु पुरुषार्थो हि प्रयोजनं न च मूलगुणादि स्वरूपावगमनं, पुरुषार्थस्य धर्मार्थकाममोक्षरूपत्वात्, यद्येवं सुष्ठु मूलगुणस्वरूपावगमनं प्रयोजनं यतस्तेनैव ते धर्मादयो लभ्यन्ते इति ।"८ अर्थात् मूलगुण आदि के स्वरूप को जान लेना ही इस ग्रंथ का प्रयोजन है।
शंका- पुरुषार्थ ही प्रयोजन है न कि मूलगुण आदि के स्वरूप का जानना; क्योंकि पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप है।
समाधान- यदि ऐसी बात है तो मूलगुणों के स्वरूप का जान लेना; यह प्रयोजन ठीक ही है क्योंकि उस ज्ञान से ही तो वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थ प्राप्त होते हैं। 'मूलाचार' मुनियों के आचरण, विचार एवं व्यवहार (समाचार) का प्रतिपादक शास्त्र है जिसका अर्थ (प्रयोजन) उत्कृष्ट मुनि के स्वरूप का निर्धारण और उनके मोक्ष का पथ प्रशस्त करना है। इसलिए 'मूलाचार' में 'अर्थशास्त्र' के बीज खोजना कठिन है किन्तु इसमें 'अर्थ' से सम्बन्ध हो ही न ऐसा भी नहीं है।
जैन साधु (मुनि) के लिए कहा जाता है कि “अर्थमनर्थं भावय नित्यं” अर्थात् अर्थ की अनर्थता (अनित्यता) का नित्य विचार करो । जैन मुनि (दिगम्बर) बनने के लिए आवश्यकअठ्ठाईस मूलगुणों में से चार मूलगुणों का सम्बन्ध कमोवेश अर्थशास्त्र से है जो इस प्रकार हैं