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________________ हा अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 77 __ अतः विनम्र,सहिष्णु,सरल और उपकारी बनने केलिए अन्तःकरण सेकषायों का ज्वर शान्त होना आवश्यक है। कषायों के कारण ही पुनर्भव रूप संसार है क्योंकि पाप की जड़ कषाय है। काले चार कषाय असंयत, क्रोध लोभ माया अभिमान। पुनर्जन्म तरु के सिंचन को, ये हैं कुत्सित नीर समान। कषाय का अर्थ है खोटे पाप कर्मों का बंध जाना।इस पद की अंतिम पंक्ति 'उपकार' भावना से भावित है। उपकार या सेवा आत्मा तथा शरीर दोनों को सुख देती है। एक कवि ने उपकार की इन्सानियत का तकाज़ा माना है। किसी के काम जो आये, उसे इंसान कहते हैं। पराया दर्द अपनाये उसे इंसान कहते हैं। यों तो भरने को तो दुनियाँ में पशु भी पेट भरते हैं, अधिक जो बांटकर खाये, उसे इन्सान कहते हैं। यदि व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ की ओर झुक जाये, तो उसका स्व-कल्याण स्वयमेव हो जाता है। उसकी परोपकार की भावना ही उसे फलदायी सिद्ध हो जाती है। मेरी भावना का पाँचवा पद भाव-विज्ञान का विलक्षण पद है। जैनदर्शन में सामायिक में बैठा श्रावक या श्रमण चार प्रकार के भावों की भावना भाता है। आचार्य अमितगतिनेसामायिक पाठ में इन चारों प्रकार की भावनाओंका उल्लेख करते हुए साधक को इनसे युक्त होना बताया है - ‘सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वं। माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विद्धातु देव।। (१) समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव। (२) गुणज्ञों के प्रति वात्सल्य व प्रमोद भाव। (३) दीन व दुःखी जीवों पर करुणा भाव एवं (४) बुरे व्यक्ति/कुमार्गी जनों के प्रति उदासीन/माध्यस्थ या समता भाव। लगता है पं.जुगलकिशोर मुख्तार सा. ने इसी श्लोक का सरलीकरण करते हुए हिन्दी काव्य में ढाल दिया है। एक विशिष्ट बात यह है कि दुष्टजनों के प्रति प्रतिशोध भाव या बुरे भाव का समर्थन जैनदर्शन में नहीं है क्योंकि इससे
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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