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________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 की वन्दना की राह दिखाने वाले अर्हन्तदेव भगवान् महावीर की वंदना करते हए भक्ति को दर्शाता है। वेदों में भी भक्तिमार्गको दैत और योगमार्गको अद्वैत कहा है। भक्ति मार्ग पर चलकर परमात्मा को पाया जा सकता है, जबकि योग-मार्ग पर चलकर परमात्मा बना जा सकता है। द्वितीय पद - साधु परमेष्ठी के गुणों की स्तुति रूप है, जो समता धन के धनी होते हैं तथा पंचेन्द्रिय विषयों से रहित होते हैं। मेरी भावना के तीसरे पद में श्रमण साधुओं का सत्संग एवं उन जैसे बनने का ध्यान करते हुए उनके आचरण का अनुगमन तथा श्रावक के पंचाणुव्रतों के पालन की प्रेरणा एवं अनुशीलन है। अंग्रेजी में दो शब्द हैं 1. Medicine 2.Meditation. जहांशारीरिक स्वास्थ्य के लिए मेडीसिन आवश्यक है वहीं आत्मा को स्वस्थ रखने के लिए मेडीटेशन नितांत आवश्यक है।ध्यान, हमारी मानसिक बीमारियों का उपचार है।मेडीसिन खरीद सकते हैं लेकिन मेडीटेशन कोई क्रय-विक्रय या विनिमय की वस्तु नहीं है। ध्यान तो एकाग्र और शांत चित्त होकर भीतर बैठकर अपने को खोकर ही पाया जा सकता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि बिना व्रतों के अनुशीलन के समता स्वरूप साधु-पद के लिए ग्राह्यता नहीं हो सकती।श्रावक हो या साधु दोनों को व्रतों की अनिवार्यता का- क्रमशः अणुव्रत और महाव्रत रूप पालने का आध्यात्मिक विधान है। ___ मेरी भावना का चौथा पद कषायों से रहित होने का जीवन-संदेश है।कषायों से निर्मुक्त हुए बिना श्रमणत्व नहीं पाया जा सकता। अहं ग्रन्थि को काटे मन की, सच्चा नमन वही होता है। लोभ कर्ष का बीज दफन दें, सच्चा कथन वही होता है।। कोटि कोटि आँखों के आँसू जिसके दो नयनों में छलके, माया रहित मनस्वी दर्पण, सच्चा श्रमण वही होता है। याद रखें अहंकारी को क्रोध जल्दी आता है। मायावी अधिक ईर्ष्यालु होता है। लोभी - उपकारी नहीं बन सकता।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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