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________________ ना 78 अनेकान्त 66/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2013 दूसरे का अहित हो या न हो, स्वयं की आत्मा का अहित तो होता है । भावनाओं का वैशिष्ट्य, जैनदर्शन की रीढ़ है । जो कुछ भी घटित होता है / हो रहा है, उसके मूल में भावों की प्रेरक शक्ति है। अन्य शास्त्रों के सन्दर्भ इसकी पुष्टि करते हैं। जैसे योगशास्त्र -४/११ (आ. हेमचन्द्र) ने इन चारों भावनाओं को ध्यान का रसायन को पुष्ट करते का हेतु कहा है : मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कतुं तद्धितस्य रसायनम् ॥ प्रायश्चित पाठ में श्रमण के लिए इस भावना के अनुपालन पर जोर दिया है:- “मित्ती मे सव्वभूएसु बैरं मज्झं न केणइ " | मैत्री भाव का विस्तार वेदों में जगह-जगह परिलक्षित है। मित्रस्य मा चक्षुषा - यजुर्वेद- ३३ / १८ अथवा - सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। आचार्य शुभचन्द्र ने भी ज्ञानार्णव में कहा - जीवन्तु जन्तवः सर्वे, क्लेश व्यसन वर्जिताः । प्राप्नुवेति सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ॥२७/७ अर्थात् संसार के समस्त प्राणी दुःख व कष्ट से दूर रहकर सुखपूर्वक जिएँ और परस्पर वैर, पाप या पराभव न करें। राजवार्तिककार ने लिखा है - दीनानुग्रह भावः कारुण्यम्। अर्थात् दीनों पर दयाभाव रखना करुणा है। भ. नेमिनाथ के विवाह के समय, भोज के लिए बांधे गये पशुओं की करुण चीत्कार सुनकर उन्हें जो संसार से वैराग्य भाव हुआ था, वह करुणाभाव का उत्कर्ष ही था। माध्यस्थ भाव के सम्बन्ध में कबीर कहते हैं- “निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छुआए।" मेरी भावना के छटवें पद में कवि ने गुणवानों के प्रति वात्सल्य या प्रमोद भाव रखने की भावना को रेखांकित किया है। वस्तुतः वात्सल्य या स्नेहभाव अहिंसा का सकारात्मक रूप है। प्रमोद गुण को एहिक और आध्यात्मिक दो रूपों में व्याख्यापित किया जा सकता है। ऐहिक - यानी सांसारिक विद्या- कलाओं ור
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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