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सर्वोदयी देशना में स्वमुखी-परमुखी दृष्टि
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
अध्यात्म की दृष्टि आज वैश्विक स्तर पर स्वीकृत हो रही है। विश्व के प्रबुद्ध लोगों ने जब देखा कि धार्मिक साम्प्रदायिकता ने मनुष्य को दिया कम छीना ज्यादा है तब उनका विश्वास धर्म-सम्प्रदाय से उठने लगा किन्तु विश्वास उठने के साथ ही वह ऊर्जा भी समाप्त होने लगी जो धर्म के मूल से प्रवाहित होती थी।ऐसे ऊर्जा हीन मानवीय प्रबुद्धता ने पुनःधर्मकी ओर देखा और उसके बाहरी आडम्बर युक्त स्वरूप को न देख कर उसके अन्दर निहित अध्यात्म के तत्त्व को देखने का प्रयास किया जो तत्त्व धार्मिक कट्टरता की विकृतियों के बीच कहीं खो गया था। यही कारण है कि आज विश्व के तमाम लोग धार्मिक या साम्प्रदायिक न कहलाकर आध्यात्मिक कहलाना पसन्द करते हैं। __ जैनधर्म भी महान् विशुद्ध आध्यात्मिक धर्म होते हुये भी समय के झंझावतों के मध्य अपनी स्वाभाविक छवि को दबाकर कृत्रिम बाह्य आडम्बरों से युक्त होता चला जा रहा है।मजबूरियाँ ग्रहण की गयीं, बैसाखियाँ अब मूल अंग बन गयीं हैं। देश-काल की मजबूरियों, विपरीत परिस्थितियों में उपचार के लिए जो औषधियाँ ली गयीं वो अबनित्य भोजन का अंग बन गयीं हैं।चिन्तन की गहरायी की कमी तथा मताग्रही दृष्टियों ने अनेक पंथों को जन्म दे दिया है।स्थिति यहाँ तक उत्पन्न हो गयी है कि जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों तक से समझौते होने लगे हैं। अकर्तृत्त्वादी जैनधर्म कर्तृत्वाद के मायाजाल में उलझता जा रहा है। धार्मिक क्रियाकाण्डों का स्वरूप आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का न होकर लौकिक पृष्ठभूमि और प्रवृत्ति का होता जा रहा है। ये वो समय है जब अध्यात्म के लिए जीवन का सर्वस्व समर्पित करने वाले निर्ग्रन्थ साधक भी निरर्थक आडम्बरों और प्रवचनों के स्थान परस्तरहीन निरर्थक भाषणबाजियों में डूबते और डुबाते जा रहे हैं।