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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 हो जाना, अपनी हानि वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन देना, अपने कार्य-अकार्य की कुछ भी गणना न करना ये सब कापोत लेश्या वाले के चिन्ह हैं।
मात्सर्य, पैशून्य, परपरिभव,आत्मप्रशंसा परपरिवाद, जीवन नैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध मरणोद्यम आदि कापोतलेश्या के कारण हैं। (iv) पीतलेश्याः
जणइ कज्जाकज्जं सेयमसयं च सव्वसमपासी।
दयदाणरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स।।" अर्थात् अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया-दान में तत्पर हो,मन-वचन-काय के विषय में कोमल परिणामी होना, पीतलेश्या वाले के चिन्ह हैं। (v) पद्मलेश्याः
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि।
साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स।। जो दान देने वाला हो, भद्रपरिणामी हो जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो,कष्ट रूप तथा अनिष्टरूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन गुरुजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो, ये सब पद्मलेश्या वाले के लक्षण हैं। (vi) शुक्ललेश्याः
ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो ये सव्वेसिं।
णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।। अर्थात् पक्षपात न करना, निदानकोन बांधना,सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट में राग और अनिष्ट में द्वेष न करना, स्त्री-पुत्र-मित्र आदि में स्नेहरहित होना, ये सब शुक्ललेश्या वाले के लक्षण हैं।
इन छहों लेश्याओं वाले जीवों के विचारों के विषय में एक दृष्टान्त भी प्रसिद्ध है- छह पथिक जंगल के मार्ग में जा रहे थे। मार्ग भूलकर वे घूमते हुए एक