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________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 कृष्णलेश्या वाले जीव के भाव अशुभतम् अर्थात् मूल से नाश करने वाले भाव होते हैं। कृष्ण लेश्या वाला जीव तीव्र क्रोध करता है, बैर को नहीं छोड़ता है, युद्ध के लिए सदा तत्पर रहता है, दया-धर्म से रहित होता है, दुष्ट होता है और किसी के वश में नहीं आता है। (ii) नीललेश्याः मंदोबुद्धिविहीणो, णिव्विणाणी य विसयलोलो य। माणी मायी य तहा, आलस्सो चेव भेज्जो य।। णिद्दावंचण बहुलो, धणधण्णे होदि तिव्वसण्णा य।। लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स।।५ जो जीव मंद अर्थात् स्वछन्द होता है, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित होता है, कला-चातूर्य से रहित होता है, पंचेन्द्रिय के विषयों में लम्पट होता है, मानी,मायावी, आलसी, भीरू तथा दूसरों का अभिप्राय सहसा नजानने वाला, अति निद्रालु, दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धन-धान्य के विषय में जिसकी अतितीव्र लालसा हो, वह नील लेश्या वाले परिणाम से युक्त होता है। ऐसा आसक्त जीव नीललेश्या के साथ धूम-प्रभा नरक पृथ्वी तक जाता है। (iii) कापोतलेश्याः रूसइ णिंदइ अण्णे, दूसइ बहुसो स सोय भय बहुलो। असुयइ परिभवइ परं, पसंसये अप्पयं बहुसो।। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं यिव परं पि भण्णंतो। थूसइ अभित्थुवंतो, ण य जाणइ हाणि-वडिं वा।। मरणं पत्थेइ रणे, देइ सुबहुगं वि थुव्वमाणो दु। ण गणइ कज्जाकज्जं, लक्खणमेयं तु काउस्स।। अर्थात् दूसरे के ऊपर क्रोध करना, दूसरों की निंदा करना, अनेक प्रकार से दूसरों को दुःख देना अथवा दूसरों से बैर करना, अधिकतरशोकाकुलित रहना तथा भयग्रस्त रहना या हो जाना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी नाना प्रकार से प्रशंसा करना दूसरों के ऊपर विश्वास न करना अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर संतुष्ट
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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