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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 पर्यायत्वात्।"२ अर्थात् जो लिम्पन करती है उसको लेश्या कहते हैं।जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है उसको लेश्या कहते हैं। अथवा जो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध करने वाली है उसको लेश्या कहते हैं। यहाँ पर प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि कषाय के उदय से अनुरंजित मोह और योग की प्रवृत्ति को भावलेश्या और शरीर के पीत-पद्मादि वों को द्रव्यलेश्या कहते हैं।
द्रव्य लेश्या पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होती है। अतः आत्मभावों के प्रकरण में उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योगवृत्ति का निमित्त पाकर होती है, इसीलिए कषाय औदयिकी कही जाती है। लेश्याओं के प्रकार व स्वरूप - लेश्या मुख्यरूप से द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की है। यहाँ भावलेश्या का विषय है तथा भावलेश्या छह प्रकार की है।लेश्या के भेदों का वर्णन करते हुए पंचाध्यायीकार कहते हैं कि -
लेश्या षडेव विख्याता भावा औदयिकाः स्मृताः।
यस्माद्योगकषायाभ्यां द्वाभ्यामेवो दयोद्भवाः।। लेश्याओं के छह भेद हैं-१.कृष्ण २. नील ३.कापोत ४.पीत५. पद्म और ६.शुक्ल।इन्हीं छह भेदों से लेश्यायें प्रसिद्ध हैं। लेश्यायें भी जीव के औदयिक भाव हैं, क्योंकि लेश्यायें योग और कषायों के उदय से होती हैं।कर्मो के उदय से होने वाले आत्मा के भावों का नाम ही औदयिकभाव है। योग और कषाय के समुदाय का नाम लेश्या है तथा यह लेश्या ही प्रकृति-प्रदेश-स्थिति और अनुभाग इन चारों प्रकार के बन्ध का कारण है। (i) कृष्णलेश्याः
चंडो ण मुचइवेरं, भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।