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लेश्या स्वरूप एवं विमर्श
डॉ. योगेश कुमार जैन डॉ. श्वेता जैन
कषाय से अनुरंजित जीव की मन, वचन, काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या है । आगम में इनका वर्णन कृष्णादि छह रंगों द्वारा निर्देशित किया गया है। इनमें से तीन शुभ व तीन अशुभ होती है। राग व कषाय का अभाव हो जाने से मुक्त जीवों को लेश्या नहीं होती। शरीर के रंग को द्रव्यलेश्या कहते हैं । देव व नारकियों में द्रव्य व भाव लेश्या समान होती है, पर अन्य जीवों में इनकी समानता का नियम नहीं है। द्रव्य लेश्या आयु पर्यन्त एक ही रहती है पर भाव लेश्या जीवों के परिणामों के अनुसार बराबर बदलती रहती है।
प्राकृत पंचसंग्रह में लेश्या को प्रतिपादित करते हुये आचार्य कहते हैं कि -
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च । जीवो त्ति होइ लेसा लेसा गुणजाणयक्खाया ।। जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पर लेवेण आमपिट्टेण । तह परिणामों लिप्पर सुहासुहयत्ति लेव्वेण ।।
अर्थात् जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं। जिस प्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरू - मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भाव रूप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है, उसको लेश्या कहते हैं।
धवलाकार कहते हैं कि- “लिम्पतीति लेश्या ।......कर्मभिरात्मानमित्य ध्याहारपेक्षित्वात् अथवात्मप्रवृत्ति संश्लेषणकारी लेश्या । प्रवृत्ति शब्दस्य कर्म
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