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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
कृत्रिम जिनबिंबों का माप - अकृत्रिम जिनबिंबों का नाप द्वारमान के आधार पर बनाया जाता है अर्थात् मंदिर में मुख्य द्वार की ऊँचाई जितनी होती है, उसके आठ या नौ भाग करके उसमें से ऊपर का एक भाग छोड़कर शेष भाग के तीन भाग करने पर उसमें से दो भाग की खण्डासन मूर्ति तथा एक भाग प्रमाण का आसन बनवाना चाहिए। तथा पद्मासन मूर्ति निर्माण के विषय में कहा गया है।द्वार की ऊँचाई के बत्तीस भाग करने पर उसमें से १४,१३,१२, भाग पद्मासन मूर्ति तथा १६,१५,१४ भाग की खण्डासन प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए।१५ मध्यलोक में मंदिर निर्माण की परम्पराभारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही देवगृह के निर्माण का प्रचलन रहा है। भक्त अपने गृह से देवगृह को सुन्दर एवं सुसज्जित बनाने में अति आनंद की प्राप्ति करता है।
जैन संस्कृति के इतिहास में मंदिर निर्माण के विषय में कोई नियत समय निश्चित नहीं है, क्योंकि जैन संस्कृति अनादि निधन है तथा उसके देवता, देवप्रतिमा तथा देवगृह भी अनादि से निर्मित हैं।जैनागम में देवताओंके जिनमंदिर आदि ८५६९७४८१ अकृत्रिम चैत्यालय में ९२५५३२७९४८ जिनप्रतिमाएं अकृत्रिम हैं।
यदि दूसरे पक्ष से देखा जाए तो कर्मभूमि में सदा षट्काल का परिवर्तन होता रहता है, जो अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल क्रम से प्रवाहित होता है। जिसमें प्रथमकाल सुषमा-सुषमा है जिसका काल ४ कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण, द्वितीय काल सुषमा ३ कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण, तृतीय काल सुषमा-दुषमा २ कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण, चतुर्थ काल दुषमा-सुषमा१कोड़ा कोड़ी सागर में ४२ हजार वर्ष कम प्रमाण, पंचम काल दुषमा २१ हजार वर्ष प्रमाण तथा षष्ठ काल २१ हजार वर्ष प्रमाण है। इन छह कालों में प्रथम तीन काल भोगभूमि के नाम से जाने जाते हैं। जिनमें धर्म और धार्मिक जीवों का अभाव होता है इसमें कर्म भी नहीं किया जाता। मात्र भोग किया जाता है। इस कारण इसे भोगभूमि कहते हैं। और जहाँ धर्म और कर्म नहीं होता वहाँ जिनप्रतिमा तथा जिनमंदिर नहीं होते हैं। परन्तु जैसे जैसे काल का परिवर्तन होता गया वैसे-वैसे भोगभूमिका